Sunday, 15 October 2017

गर मुसाफिर तुम तो वोभी राहगीर ही है


खेल कुदरत का सारा इकतरफ़ा नहीं है
गर मुसाफिर तुम तो वोभी राहगीर ही है


सिखाता है जो स्वयं सीखता भी सतत है
पढ़ाता भी है स्वयं पढता भी शिष्यवत है

एक नियम, एक दस्तूर, इकबात है प्यारे
रुलाता जो अक्सर, खुद में रोया बहुत है

हैरां हो क्यूँ अचरज तुम्हे हुआ क्यूँकर है
वह धैर्यधारी ही धैर्य धरवाता भी बहुत है

गुरुधर्म, देवधर्म, इन्सां धर्म दुष्कर बहुत
समय की कसौटी पे चढ़के कुंदन बने है

चाक पे चढ़गुजरे है सिद्धअनुभवी पहले
ब्रह्मामुख खुला था, हम पीछे चल पड़े है

दूर नहीं! प्रथम गुरु माँ पिता को देखिये
उनके सिखाये समझने में, बरसों लगे है

lata , 16-10-2017, 12:10

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