बस यूँही, अपनी कुर्सी पे बैठे
अधखुली खिड़की देखते हुए
बैठे बैठे कहाँ ख़ो से जाते हैं
बेसाख्ता आँखे मुंद जाती है
अनायस कुछ पल जागते हैं
दीदों में चमक ले हीआते हैं
हम सागर में तैरते-डूबते है
ओ ये लब मुस्काने लगते है
नसों में सुर्ख खून दौड़ता है
उँगलियाँ शिरकत करती है
सुन्न दो पैर थिरकने लगते है
और जाग जाते है कुछ पल
कमरा रौशन रौशन होता है
चहुँ फूल मुस्कराने लगते है
इंसान हो! का पाठ पढ़ाते है
जिन्दा हो! महसूस कराते है
Ⓒ लता
18 / 08 / 2017
09:30 am
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