Monday, 14 August 2017

पूर्ण-अपूर्ण या अपूर्ण-पूर्ण


कितना भी कहना चाहे जो कहना है कह नहीं पाते 
न कह पाने की चाह का नन्हा तिनका सरसराता है

कितना हम सुनना चाहे, जो सुनना है सुन नहीं पाते 
वो सुन पाने की पीड़ा कुछ हमसे सरक ही जाता है

बहते मौसमों में रहती पर्तों में जमी ठंडी सौम्य बर्फ 
बर्क की चादर सी चमक नीचे गर्म लावा उबलता है 

मौन भी कहाँ पूरा तुम और मैं सोचते रहे दो देहों में 
एक भी कहाँ पूरा, साँझबेला पाखी घर उड़ जाता है

पाखी उड़ता, भटक फिर उतरा, उसी अधूरी देह में 
कुछ कहीं कोई तो अधूरा नन्हा तिनका सरसराता है

काल वख्ती, चाल चक्री, मिजाज भी वक्री है, गुमां में 
नन्हा दीप जलाये तूफानी हवा से, हरबार उलझता है 

क्यूंकि -

सब कह पाने की चाह लिए नन्हा तिनका सरसराता था 
छूटा कहीं कुछ जिसकारण नन्हा तिनका सरसराता था 


फिर -

फिर एक जन्म में बरसा परमात्मा का आशीश दीन पे 
हुआ अधूरी शक्ति का वास्तिवक आभास कटे पेड़ सा 
कहना किससे! कहना क्यों! था अद्भुत नृत्य लीला का 
गिरा भ्र्म, माया ओझल, नेत्रहीन की दृष्टि साफ़, आह! 
अधिकारी हुआ तत्क्षण  दिव्यधाम का वो निरीह पाखी 

ॐ ॐ ॐ 

© लता 
Monday /14 August/17:36pm
add on a blog -Tuesday/15 August/ 07:30 am 


No comments:

Post a Comment