Monday, 28 August 2017

चैतन्य और चैतन्याकाश

कहा तो बहुत है पर बात ये के सुना क्या है 
सुना भी बहुत है फिर बात येके धरा क्या है

धरा भी यदि है तो बात येके खंगाला क्या है 
खंगाला भी बहुत तो बात ये, निथारा क्या है

निथरा भी बहुत है, बात ये की पिया क्या है 
पिया भी बहुत तो बात ये की पचाया क्या है

पचा शक्ति बना तो शक्ति का किया क्या है 
कमाया बहुत, बात येकी गवायाँ भी बहुत है


निथरा क्या पिया कितना ओ पचाया क्या है
बात ये भी है के खंगाला क्या है धरा क्या है

सार निःसार कह, यकायक ग़ुम हुआ और;
तब से न मालूम क्यूँ कोल्हू का बैल मौन है

ऐसे में; दूसरा बैल आया उसके पास बोला-
भई तुम तो चढ़े चाक पे डोलते हो बरसों से

कुछ तजुर्बा! कोई किस्सा! कुछ तो सुनाओ 
रास्ता हो आसां हमारा भी तरकीब सुझाओ

मुँह से झाग निकलते बैल के घुटने टिक गए 
कुछ न बोल पाया क्या बोलता प्राण उड़ गए

दूसरे बैल ने कई को जोड़के समाधी बनायीं 
प्रथा है बनी तभी से! उस उस पवित्र स्थल पे

नित्य प्रति झुक घुटने टेकते, सब उसी तरह!
घुटने से झुका प्राण त्यागना मिसाल बन गया

आज कल तो वहां पंक्तिबद्ध भीड़ बेशुमार है 
रोजगार श्रद्धा से भरा वो मन्नतो का दरबार है

दूर दूर से जुटते है,नैनो में प्रेम हृदय में आस 
श्रद्धा से भाव से वृद्ध युवा बच्चे घुटने टेकते है

प्रार्थना करते, हे उच्चात्मा जब हो घुटने टिके-
ठीक उस क्षण प्राण निकले तो मोक्षी कहाऊं

आज कल तो वहां पंक्तिबद्ध भीड़ बेशुमार है 
रोजगार श्रद्धा से भरा वो मन्नतो का दरबार है

Tuesday, 22 August 2017

बता ऐ दोस्त!

ऐ दोस्त...

लोग कहते है पत्थर शांत झील में न मार लहरे उठती रहेंगी
आसपास की डोलती हवाएँ इस झील में कंकड़ फेंक देती है
नादाँ हवा को रोके कैसे, ए दोस्त !


रक्त में शामिल रक्तबीज से निपटने का तरीका दे, ए दोस्त!
विध्वंसक तो काटने से दुगना बढ़ता,मरता पुनः जन्म लेता है
कोई तो तरकीब सुझा ! ए दोस्त !


देवी ने तो रास्ता खोज निकाला रक्त-बूँद भी धरती पे न गिरे
मारती गयी जूं रक्तबीज को रक्त कटोरे में इकठा होता गया
इसका कुछ समझे मर्म ! ऐ दोस्त !


सिर्फ देवी की बात नहीं जयद्रथ का सर अवगुणो का पुलिंदा
यूँ ही काटा था अर्जुन ने स्वयोग और देव कृष्ण के सहयोग से
अस्मा में फ़ूट मिटा बम सा, ऐ दोस्त !


बीज का रक्त गर्भ में आते कारन बनेगी प्रकृति पुनःजन्म का
रक्तबीज समाप्त हो जड़ से,लहू एक बूँद भी धरा पे गिरे नहीं
कोई ऐसा तीर तू भी चला , ए दोस्त ! 

धरती के गर्भ में बीज गिरा जन्मेगा, जन्मदात्री जो ठहरी प्रेमिल
शक्तिशाली अस्मा अपने में समेट व्योम-घेरे में कैद कर लेता है
इन सब को यूँ ही खींच ले, ऐ दोस्त !



© Lata 23/08/2017 10am

Note : विचार कुछ ऐसा , की भलाई और बुराई में बंटे गुण , एक दूसरे की बात सुनते है पर समझते अपनी ही समझ से , लाख एक पक्ष प्रयास करले दूसरे की समझ में अपनी तरीके से वो बात प्रवेश करेगी। इसका क्या उपाय है ? और ये एक दो की बात नहीं , एक और दो से शुरू हो पूरे मानव समाज पे छायी है , छाते जैसी , इसी में धर्म सप्रदाय देश , इंसानियत तक शामिल है। अब बोलो क्या किया जाये !
कुछ ऐसा ही ख्याल , जब एक सम्प्रदाय दूसरे के धार्मिक नियम में दखल दे देता है , इंसानियतवश। बहुतों का भला भी होता है , देवत्व की स्थापना होती है। पर इसका ही एक दूसरा पहलु भी है , जो गुण घायल है वो अपने तरीके से प्रतिउत्तर भी देगा , क्यूंकि जो घायल है वो भी शक्तिशाली है। फिर देव और दानव के बलवान उत्तर प्रतिउत्तर का लम्बा काल, होती है इंसानियत शर्मिंदा और ईश्वर फिर अपने पौरुष से संतुलन में रत अवतार लेते ही है। युगांत इसी का नाम है।

हमदोनों


'वो' मूरत हमने खड़ी की 'तो' इमारत तुमने भी
'ये' तरीका हमने ईजाद किया तो 'वो' तुमने भी
'इस' रास्ते हम चले तो 'उस' रास्ते तुम भी चले 
बुद्धिमान और साक्ष्यदर्शी पुरुष आस पास गढ़ 
हमदोनों ने निजता के लिए दो पताका गाड़ दी 
हम अपने पाटे पे बैठे वो अपनी खटिया पे बैठे 
हमने छत्तीस की माला फेरी तुमने तिरसठ की 
हमने हुक्का गुड़गुड़ाया तुमने चिलम सुलगायी 
आदत! हम दोनों पान चबा मुँह छुपा के थूकते 
हम दोनो अफलातूनी एक दूसरे को नहीं सहते

सदियों से स्वर्ग के रास्ते, युद्धस्तर पे हम दोनों
हम दोनों थे अलगअलग रहते भी थे जुदा जुदा
बचपन पे खेले साथ बढ़ते,सुख दुःख देखे साथ 
देखो सब कुछ समाप्त हुआ खाली हम तुम हैं 
घनी सांझ की बेला में बैठे हमतुम थक हार के 
गहरी सांस ले मुस्काये, एक दूजे को निहार के 
मैंने ही तुम्हारे बैलो को खिला बीमार किया था
हाँ ! मैंने भी तुम्हारी बकरी चुराई थी उस रोज 
मैंने तुम्हारे खेत मेंआग लगायी थी मालूम क्या 
मैंने दुश्मन से मिल तुम्हे मारने तक की सोची 
अच्छा ! (आश्चर्य),अफ़सोस गहरी श्वांस (खेद)

देखो तो आज हमें किस हाल में कर छोड़ गए 
वो सूरज निकलने को, गुस्सा थूक लग जा गले
मिलजुल खेत में एकबार फिर जुताई शुरू करें
बाद में कुछ पैसे आएंगे, फिर बैल भी खरीदेंगे 
खेती फिरअच्छी होगी दोबारा खेत लहलहाएंगे
© 23-08-2017,07;05am Lata  
Note-the poetry is written on basis of two different minds set of close neighbours friends who are actually friends but jealous many times. the problem in script blame game continues... pahle ek dusre ko ..... ab teesre ko , Dear neighbours friends ! not fair! some thing problem in mental tuning and mutual understanding and acceptance, so again the friend will face the same problem in their Good days and this is called character. though Ashtanga-yog finds 8 principles as 8 ways, on walk characters also possible change . but need timeless practices.  by the way; good wishes for strong friendship for good cause.

Saturday, 19 August 2017

ये चाँद ये सूरज तेरा भी है मेरा भी

दो शब्द  : आभास को शब्द देने की कोशिश करती हूँ ,ये वो अहसास है जहाँ  भाग्य से दो व्यक्ति साथ है , पर भाग्य अलग अलग है , और कर्म जुड़ के एक हो गए है , माने अब कर्म एक है पर भाग्य अलग अलग , संभव है ! ऐसा भी संभव है।  आवश्यक नहीं  की कर्म-कर्त्तव्य यदि एक हों, तो भाग्य भी एक ही हो !  माना हम बहुत सम्बन्धो का जोड़ है और  बहुतों से संबंधित भी  है पर फिर भी ;  अपना रास्ता .. अपना ही है , बहुत केंद्रित , जरा भी इधर उधर नहीं ....... ऐसा लगेगा की सब हमसे ही जुड़े है और हम सबसे , पर सभी ऐसे ही है अपने अपने रस्ते पे , ऐसा सिर्फ आपको ही नहीं उन सभी को लगेगा की आप भी उनसे ही जुड़े है और वो आपसे , पर आपका रास्ता अपना ही है , बहुत ही केंद्रित, बहुत निजी, व्यक्तिगत  और जन्मजात  , आपको जो शब्द ज्यादा करीब लगे , ले लीजिये। ... आभार  प्रणाम ।



एक सूरज उस आस्मां में उगता है
एक चाँद स्याह शून्य में उभरता है

वो सबका है, थोड़ा तेरा है मेरा भी 
ये चाँद सूरज फकत तेरा है मेरा है 

एक सूरज  उगता  है तुझमे मुझमे
एक चाँद चमकता है तुझमे मुझमे

कर्म का सूरज औ भाग्य का चाँद
इक सुलगती भट्टी, तेरी है मेरी भी

दो दीपशिखायें जलीं, एक दीप में 
सुलगती है साथ पर, दोनों हैं जुदा 

सूरज का इक पथ, तेरा है मेरा भी
इक चाँद उभरा तेरा भी है मेरा भी

किस्मत का खेल ज्यादा न सोचिये
गठबंधन देह के, कर्मबन्ध जोड़ है 

भाग्यअल्हदा दे कर्म संग जुड़ गया
अक्ष; इक छत तले तेरा भी मेरा भी

घटे बढ़े चमके इक चाँद आस्मां में
एक संग यहाँ पे तेरा भी है मेरा भी 

हम बंधे कर्तव्य पथ पे इकसाथ में 
ज्यूँ निश्चित सूरजमार्ग, कर्मपथ का

चाँद से भावसंसार का गहरा नाता 
सूरज सम कर्मयोगी जीवन हमारा 

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उतरा है जीवन में 
नक्षत्रों का सारहार तेरा भी मेरा भी

अलगअलग पर मिलेमिले हम तुम
ये चाँद,ये सूरज, तेरा भी है मेरा भी




ⓒ Lata_05:30am_20/08/2017

Thursday, 17 August 2017

बस यूँ ही



बस यूँही, अपनी कुर्सी पे बैठे

अधखुली खिड़की देखते हुए 


बैठे बैठे कहाँ ख़ो से जाते हैं

बेसाख्ता आँखे मुंद जाती है 



अनायस कुछ पल जागते हैं 

दीदों में चमक ले हीआते हैं 



हम सागर में तैरते-डूबते है 

ओ ये लब मुस्काने लगते है


नसों में सुर्ख खून दौड़ता है 

उँगलियाँ शिरकत करती है 


सुन्न दो पैर थिरकने लगते है 

और जाग जाते है कुछ पल 


कमरा रौशन रौशन होता है 

चहुँ फूल मुस्कराने लगते है 


इंसान हो! का पाठ पढ़ाते है 

जिन्दा हो! महसूस कराते है 


Ⓒ लता 
18 / 08 / 2017 
09:30 am 

Tuesday, 15 August 2017

वो "जो भी " था


Total Responsibility of Being:-
अपना होने का अहसास और जिम्मेदारी 

वो "जो भी " था ,  था  गैर कभी
अब मुझमे उतर के मेरा है
पहले अक्स फिर वजूद हुआ वो
हम कदम भी अब मेरा है

शिकवा क्यों औ गिला किससे हो
आईना सा हूबहू वो मेरा है
उसने जो दिया भरपूर दिया मुझे
मेरे इर्द गिर्द है, वो मेरा है

कदम दर कदम साथ ही चलता है
रौशनी संग स्याह साये है 
डूबती तैरती  ख्वाहिश मे बसता है
आखिर!अधूरापन मेरा है

सरकती धंसती है रेतदीवालें तो क्या 
गहरी बुनियादें भी मेरी है
मुश्किलात हालात के रूबरू टिका
राहतों का जहाँ भी मेरा है

© लता
Tuesday /15august2017/16:35

Author's Note- A Note for a one step higher understanding:- It's a deep science and deeper psychology of taking responsibility with love n care whatever calls ours, Detail will merge later ... 
Yes, if one attracts can take as worldly affairs, you may find indications, but it's more than from elemental expressions, Actually taking responsibility is eternal and qualitative out of the body.
Responsible term "mine" also indicates, the qualities allotted as an assignment by supreme in surroundings... 
its total karma oriented and joy with assigned responsibility in walks

Monday, 14 August 2017

पूर्ण-अपूर्ण या अपूर्ण-पूर्ण


कितना भी कहना चाहे जो कहना है कह नहीं पाते 
न कह पाने की चाह का नन्हा तिनका सरसराता है

कितना हम सुनना चाहे, जो सुनना है सुन नहीं पाते 
वो सुन पाने की पीड़ा कुछ हमसे सरक ही जाता है

बहते मौसमों में रहती पर्तों में जमी ठंडी सौम्य बर्फ 
बर्क की चादर सी चमक नीचे गर्म लावा उबलता है 

मौन भी कहाँ पूरा तुम और मैं सोचते रहे दो देहों में 
एक भी कहाँ पूरा, साँझबेला पाखी घर उड़ जाता है

पाखी उड़ता, भटक फिर उतरा, उसी अधूरी देह में 
कुछ कहीं कोई तो अधूरा नन्हा तिनका सरसराता है

काल वख्ती, चाल चक्री, मिजाज भी वक्री है, गुमां में 
नन्हा दीप जलाये तूफानी हवा से, हरबार उलझता है 

क्यूंकि -

सब कह पाने की चाह लिए नन्हा तिनका सरसराता था 
छूटा कहीं कुछ जिसकारण नन्हा तिनका सरसराता था 


फिर -

फिर एक जन्म में बरसा परमात्मा का आशीश दीन पे 
हुआ अधूरी शक्ति का वास्तिवक आभास कटे पेड़ सा 
कहना किससे! कहना क्यों! था अद्भुत नृत्य लीला का 
गिरा भ्र्म, माया ओझल, नेत्रहीन की दृष्टि साफ़, आह! 
अधिकारी हुआ तत्क्षण  दिव्यधाम का वो निरीह पाखी 

ॐ ॐ ॐ 

© लता 
Monday /14 August/17:36pm
add on a blog -Tuesday/15 August/ 07:30 am 


Thursday, 10 August 2017

अनहद का प्रिय-गीत, गाना चाहता हूँ



अनहद का प्रिय-गीत , गाना चाहता हूँ 
मनके मन के तुझसे जोड़ना चाहता हूँ 
उड़न अधिक,  समय और शक्ति कम 
उसी शक्ति से तुझ को छूना चाहता हूँ 

बिजलियों की  गड़गड़ाहट से लरजता 
तुझ से  उठती  हवाओं  से घबराता हूँ 
कंपकंपाता टिमटिमाता  दीप जो मेरा 
ह्रदय.. ह्रदय प्रेम से, बांधना चाहता हूँ 

उलझा हूँ, नुकीले कंटको से घायल हूँ 
पाषणो से टकरा मरु में भटकता हूँ मैं 
दूर उस अमृतकलश से व्याकुल हुआ 
दुर्गम पे संभल संभल चलना चाहता हूँ 

झोंका पवन का आता है जो द्वारे से तेरे 
स्पर्श कर मानो जीवन का नवराग देता 
पथ बीहड़ भूले कंटक का भी दर्द नहीं 
विह्वल था अब तुझमे समाना चाहता हूँ 

अंधकार दुर्गम जंगल बिजली कड़कती 
न मरू-थल, न समुद्री चक्रवात दिखता 
हवा में बवंडर का शोर, जोर भी नहीं है 
दिव्य सीमाएं तेरी इनमे रहना चाहता हूँ 

बिवाईं की वेदना लहू का रिसाव निरंतर 
खुली पलकेँ, वर्षों जागा हुआ ह्रदय मेरा 
विचलन तड़पन जल से पूरित ये नैन दो 
तुम्हारी गोद में छुप  सो जाना चाहता हूँ 

पाया अनुपम दीप प्रकाशित गुणतत्व से 
प्राणो की  चिरज्वाला   से इसे जलाया है 
अकंप रहे, विचलित न हो ओजवान बने 
पंचतत्व  को मित्रसाक्षी बनाना चाहता हूँ 

पलक मूंदने को है सांस रुकने को है बस 
ह्रदय की धड़कन तेरी ताल में मिलने को 
श्यामा! बेचैनियों को थोड़ा सहारा और दे 
अनहद गीत भरी बांसुरी सुनना चाहता हूँ 

ॐ 
नमन