Wednesday, 7 February 2018

मनुष् मनुष्यता दोनों आप



निहुरे निहुरे चल रे मनवा !

यूँ करें आप अपने से जुड़ जाएँ
गहरे मौन में उतर, गोते लगाएँ

फिर एकदिन उस में डूब जाएँ
मनुष् मनुष्यता दोनों आप ही हैं

अनेक उपाय से खुद से लड़ते 
खुद को स्वकृत स्थापित करते 

क्यूंकि; मानुस जन्म में जन्मे है 
मानुस होने का अहसास होगा 

तभी जागेगा मनुष्यता का राग 
ओ तभी पता चलेगा के- 'मैं हूँ'

संवेदनायें लिए, बैठा होगा वहीं 
मनुष् मनुष्यता का दीप जलाये 

आँखे बंद करें, तो संबंध बनेगा 
बाहर ढूंढे सेभी न कुछ मिलेगा 

तो यूँ करेंके अपने से जुड़ जाएँ
गहरे मौन में उतर, गोते लगाएँ

फिर एकदिन उस में डूब जाएँ
मनुष् मनुष्यता दोनों आप ही हैं

और ऐसे आपै आप खोजते हुए 
आपसे आप का संघगठन होगा 

ऐसी शुभकामना मानवमात्र को
आपका जीवन यूँ मंगलकारी हो

Lata 
07/02/2017
13:51pm


उसने कहा - अपने लिए जीना भी कोई जीना है, सुन के बड़ा गर्व हुआ आदर्श वाक्य पे। कहाँ कोई ऐसा सोचता है , जरूर शुद्ध भाव है। परिवार के अच्छे दिए संस्कार है आत्मा की उच्च अवस्था है। और वो शुद्ध भाव से कूद पड़ता है आत्मा के हवन में , जोर की लपटे और वो परवाह नहीं करता , ट्विस्ट है क्यूंकि अब वो होलिका तो था नहीं की शाल से लिपट बचा लेता अपने को , सो जिस दूसरे के लिए काम करना मकसद था , उसी दूसरे के समूह में उसका सर वैमनस्य की बलि चढ़ गया।
किन लोगो के लिए आप क्या बीड़ा उठा रहे है इस्पे भी आपका जीवन निर्भर करता है।
हाँ !! तमाशबीन सब है !धर्म की डोर बिरले के हाथ , कायरों की गिनती नहीं होती हुजूम पे सिर्फ एक क्रूर भारी है, इसके बाद सन्नाटा और इस सन्नाटे में करुणावान के लिए करने को बहुत कुछ शुरू होता है , 
हाँ ! आध्यात्मि और दूसरे समाजसेवी के लिए समाज में करने को बहुत कुछ है , जब सैलाब गुजर जाये तो पीछे टूटे गिरे लकड़ी के दरख़्त को मनोबल दे के फिर से हरा भरा करना भी कम नहीं ।  ऐसे टूटे दरख़्त भी अनगिनत है , और आपके लिए काम भी बेहिसाब , क्यूंकि हवाएं रोज चलती है ,पेड़ भी रोज ही रोज उखड़ते है। आप तो बस समंदर के किनारे अपना वाईपर चलाते रहिये।  समाज में यदि आप सहारा देने पे उतरे आश्रितों की लाइन है ...... आप शिविर लगाइये , ध्यान सिखाईये , योग प्राणायाम से जीवन का संचार बढाईये , शायद मनुष्यता बढे
उस ऐसे ही एक मनुष्य का पिता हाथ जोड़ खड़े लोगो से गिड़गिड़ाता रहा भीड़ सिर्फ सांस रोके आगे होनेवाला क्या है , ये भागेगा या अभागा मरेगा .....सोचते रही , गला आधा कट लटक गया , अगले पल चाकू चलाने वाला भाग गया उसका काम जो ख़तम हो गया था , माँ बेतहाशा भागी अपने बेटे की तरफ लटकते गले को जोड़ अपना रूपट्टा बाँधी सहारे के लिए अपने बेटे को अपने हांथो में लिए जीवन की आस लिए अस्पताल , पर देर हो चुकी थी ! ऐसा मंजर ! 
ऐसा मंजर ! देश धर्म  समाज  के नाम पे मिली हुई चाशनी  में विष जैसा कभी प्रेम मापदंड बनता है , तो कभी घृणा वैमनस्य बदला  दुश्मन हो जाते है , रोज ही कहीं न कहीं , किसी न किसी पे  घटता है , पर जिसके ऊपर घटता है शायद वो ही समझता है ......

मनुष्यता , आज बहुत शर्मिंदा  हूँ , विचलित हूँ !!
निहुरे निहुरे चल रे मनवा !

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