स्वभाव से आग उर्ध्वगामी, ऊपर को ही चढ़ेगी
संपर्क में आई हवा के कण भी राख बन झड़ेंगे
तत्व से सना लावा, तत्व गलाता नीचे को बहेगा
अग्नि से धधकता लावा जब जल-तत्व पे गिरेगा
गर्जते घन बिच तड़कती चपलरेख प्रतीति देती
लावा संग ले उतरी हो लावण्यी अग्निबाला जैसे
भूमि-गर्भ से तप्त निकले सुर्ख-ज्वाला लिए हुए
न थमता , सर्प सा मार्ग खोजता, बह निकलता
भावहीन हुआ स्वाहा करेगा जो मार्ग में आयेगा
स्वर्ग से हरहाराति गंगे शिव-जटा में शांत होती
दुग्ध धार बन निकली, भू सींचती कल्याणी हुई
तरल धातुमल यूँ निधिकोष बना सिंधु प्रांगण में
अब आगे का काव्य मर्म सुनिए ; ऐसा लगता है मानो कुशल नृतक अपनी सर्वाधिक कौशल से भरी प्रस्तुती मंच पे दे रहा हो और दर्शक दीर्घा से उठती तालियों की गड़गड़ाहट थमने का नाम न ले रही हो , गर्भ चीर के सागर की और बहता धातुमल ऐसे ही नर्तन करता जाता और बहते लावे से पर्यावरण में ऋतू परिवर्तन भी हैं , ऐसे उमड़ते शोर करते काले मेघ बिजली की कड़क प्रतीति देती मानो सागर से अपने में समां लेने का अनुग्रह है ताकि जलनिधि इस धातु-निधि को अपने में गर्भ में रक्खे , साथ ही अपने तेज के सहयोग से जलनिधि से आग्रह कुछ उच्च कोटि की जलबूंदो को वाष्प को समर्पित करने के लिए , और सागर अग्नि के अनुगृह पे ये प्रार्थना स्वीकार करता है , अपार जल से चुनी हुई सुपात्र जल कण को भाप बनने के लिए आज्ञा देता है ,उल्लेखनीय है की - ....ये जलकण भव -सागर में रहते हुए अपनी सुपात्रता सुनिश्चित करते है -
घुमड़ते श्याम मेघगर्जन अनुग्रह का भास् देती
अग्नि के आग्रह पे, गरु जलनिध विचार करता
अथाह जल में से चुटकी जल को आज्ञा दे देता
छन्न-धुन से फिर ऊपर को उठता वाष्प-गुबार
ये भाप अतिशुद्ध है किसी भी कलंक से दूर है
मूल तल से उठ, व्योम में विलीन होने योग्य है
© Lata
19/02/2018
11:07am