Saturday 6 May 2017

मिट्टी के अक्स


सोचा के आज, कविता न गढूं
शब्दों के जखीरे को न उधेड़ूँ

कहूँ सहज सरलतम शब्दों में
ध्यान में हुई वो ध्यान की बात

हाँ आज देखा मैंने मिटटी को
रेत का ढेर बनी , मिट्टी थी वो
गौर से देखाअक्स उभरा मेरा
तेज हवा में उभर खोता हुआ
मुझ से अक्स जुदा होता हुआ
मिट्टी के ढेर में,खुद को पाया
जो मिट्टी में दब मिट्टी हो गया
उन जादुई पलों में, मुस्कराते
खिलखिलाते गुनगनाते आंसू-
गिराते पाया उभरतेअक्स को
रेती में खो पल में मिट्टी हुआ

सोचती हूँ कहूँ सहज शब्दों में
ध्यान में उतरी, ध्यान की बात
©Lata 06-05-2015

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