Wednesday, 24 February 2016

पत्ते से हम तुम

क्या किसी और से भी मिले हो कभी !
किसी और को भी जाना है क्या !
दिमाग जिरह करेगा ... भरसक हराएगा
देखो ! दिल के बहकावे में न आ जाना
बहुत कोशिशों के बाद भी
भाग्यशाली को तपस्या फली भी तो
खुद से हर बार मिल संसार से मिल गए तुम ,
खुद की ही तो पहचान हुई है ,
सौभाग्यशाली थे इसीलिए खुद से मिले सके
फूल ने कब जाना सुगंध उसकी
तितली ने न जाना रंगीन उड़ान अपनी
पहाड़ों ने ऊंचाई कब जानी
घाटियों ने अपनी ही गहराई कब नापी ...

इंसान थे तुम तो अपने से दोचार हो सके
कुछ यूँ ही खुद का संसार बना के ,
आते जाते अपने ही मौसम में भीगे सूखे
और अपनी ख़ुशी के त्यौहार बन गए .
हमारे सब , सब इसी भ्रम में
जीवन से मौत का खाका खींच
आपसी गुणाजोड़ का हिसाब करते रहे
हम सब सब -के लगते से है
सच है ; जिनके साथ जीना चाहे मगर
उनके बिना भी जी ही लेते है
तू कहाँ है ! और तू कौन है !
अभी यही था अभी कहीं नहीं है
हम सबकी साँसों की सीमा तै करती
परछाईयों के शहर में बसी परछाईयाँ ,
उन परछाइयों की परछाईयाँ ही दिखती है ....!

हम से उनकी उनसे हमारी पहचान गुथम गुथा ,
बाद निशान भी हमारे ढूंढे से भी
नहीं कहीं मिलते है !
हाँ कोई " बड़े " चक्रवर्ती राजा या " बड़े " वीर हुए तो
कुछ शब्दों में उलझ ,
बहती काली स्याही की धार की कुछ लाईनो संग
कुछ देर को रुक जाओगे ; और फिर
बड़े से महा सागर की ओर
महीन धारा बन बहते हुए मिल जाओगे...!
24 02 2016

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