Friday, 26 February 2016

देव तुम धड़कन देवी ये देह ...




1- है पार्वती सी देह सर्द बर्फ धड़कते ऊर्जा तत्व हो शिवा 

     सप्तेन्द्रिय संयुक्त कर्म लिप्त रहते ओज युक्त सदा

     The body is alike parvati cold frozen you're the pulsating energy factor, Shiva 
     with  all seven  senses both involved in deeds always  you are full of vigour


2- निष्कासन से देव के बर्फ सी निष्प्राण होती देह श्वेत 

    आगमन से सुशोभित शिव शैशव चहके देवी देह संग

      As shiva moved out  the body get lifeless white and iced 
      as shiva enters in body childhood become live with the body 



3- उल्लसित जीवनजन्म लालिमामय अग्रसर संग संग 

     शिव प्रस्थान साथ ही देवी गमन सुनिश्चित सम्पन्न

       Jubilant pinkish  starts of life birth, moving forward both together
       as shiva moves out  , with that devi (elemental body )also  fix to go  


4-संग रहते आदिदेव आदिदेवी कौन अलग किससे कब 

    योग- कर्म-भाग्य संयोग हो पूजन आदि देव-देवी संग

     Both knotted together the first lady and first man  no one separate 
     Yog-deeds-destiny-coincidences-bearings become worship to both  



5- नमस्कार बारम्बार परमदर्शन युग्म यौगिककला बन 

    उतरे श्वांस द्वार से संग केंद्र में विहंगम वास आपका

     Namaskar each time most intellectual visualisation as the divine couple 
     who comes in  through breaths, your master home is in  my very centre 

संध्या नमन
Goodevening


Introductory of concept : The very first man is Shiva  as  supreme soul  and his  feminine factor  is divided in duality and become Devi .... she is the Universal first lady  Adi Devi  ,  Now  in One body-temple ...  Here is Soul  Shiva  and body is Devi , can't  survive  without each other , Soul still can fly but element  can't stand without Shiva. And jointly manifestation take place as Unitedly  in one body than poetry  comes " Dev is a heart beat (life) of Devi as (body) "  

This  basic relationship of yin and yang in one body and after that it is an extension in the universe .. in form variety of lives .

Wednesday, 24 February 2016

द्वीप से हम


सागर से जूझते जो नित लहरों से खेलते 
विशाल द्वीप भूखंड जीवित तुफानो में रहते है

उद्घोषणा स्थति-परिस्थति की करता 
ज्ञानवान इंसान भी गहनसंपन्न द्वीप होता है

सिर्फ इंसान ही नहीं द्वीप बन जाता 
नित पैदा होते मिटते ऊर्जावान एक एक शब्द

द्वीप बन उत्पन्न हो विलीन हो जाते है 
शब्द ही नहीं अक्षर भी द्वीप भूखंड सा होता है

गहरे मन्त्र अक्षर जिनके बीच बैठा मौन
गहनतम सन्नाटा हो , एक द्वीप बन जाता है

मंत्राक्षरों से गहन तरंगलहर स्वामी मंथन  
अन्तस्तम में प्रज्वलित लौ हो सिमट जाता है

अन्तस्तम में हजारो रेशे बन मंथन वासित 
केंद्र में स्थित उनका अपना द्वीप बन जाता है  

24 02 2016 

मिलती कोरी-कुँआरी है....



सुनाने आज बैठे जो जिंदगी का शगूफा उनको कि 
सच मौत से शुरू और यही पे खत्म है। 

कहा उसने,' देना है जिंदगी मय की खुराक पिला-

मौत के कदमो की अभी आहट न सुना'।

नादाँ से क्या कहिये ये जो जिंदगी की किताब है

लिखा पहला आखिरी लब्ज यही तो है।  

रंग भरो शौक से ! पूरी की पूरी किताब तुम्हारी है

सफ़ेद कागज की सफेदी को याद रखना। 

याद रखना इसके हर पन्ने पे हजारों रंग बिखरे है

शुरू और अंत में मिलती कोरी-कुँआरी है। 



24 02 2016

पत्ते से हम तुम

क्या किसी और से भी मिले हो कभी !
किसी और को भी जाना है क्या !
दिमाग जिरह करेगा ... भरसक हराएगा
देखो ! दिल के बहकावे में न आ जाना
बहुत कोशिशों के बाद भी
भाग्यशाली को तपस्या फली भी तो
खुद से हर बार मिल संसार से मिल गए तुम ,
खुद की ही तो पहचान हुई है ,
सौभाग्यशाली थे इसीलिए खुद से मिले सके
फूल ने कब जाना सुगंध उसकी
तितली ने न जाना रंगीन उड़ान अपनी
पहाड़ों ने ऊंचाई कब जानी
घाटियों ने अपनी ही गहराई कब नापी ...

इंसान थे तुम तो अपने से दोचार हो सके
कुछ यूँ ही खुद का संसार बना के ,
आते जाते अपने ही मौसम में भीगे सूखे
और अपनी ख़ुशी के त्यौहार बन गए .
हमारे सब , सब इसी भ्रम में
जीवन से मौत का खाका खींच
आपसी गुणाजोड़ का हिसाब करते रहे
हम सब सब -के लगते से है
सच है ; जिनके साथ जीना चाहे मगर
उनके बिना भी जी ही लेते है
तू कहाँ है ! और तू कौन है !
अभी यही था अभी कहीं नहीं है
हम सबकी साँसों की सीमा तै करती
परछाईयों के शहर में बसी परछाईयाँ ,
उन परछाइयों की परछाईयाँ ही दिखती है ....!

हम से उनकी उनसे हमारी पहचान गुथम गुथा ,
बाद निशान भी हमारे ढूंढे से भी
नहीं कहीं मिलते है !
हाँ कोई " बड़े " चक्रवर्ती राजा या " बड़े " वीर हुए तो
कुछ शब्दों में उलझ ,
बहती काली स्याही की धार की कुछ लाईनो संग
कुछ देर को रुक जाओगे ; और फिर
बड़े से महा सागर की ओर
महीन धारा बन बहते हुए मिल जाओगे...!
24 02 2016

Tuesday, 23 February 2016

जिंदगी क्या बात है !




अनुभव है हँसने नहीं देते
इक सच्चाई जो रोने नहीं देती है


शतरंजी चाल है इसकी 
पीछे इक , दो आगे को चलती है


दोहरी पटरी बिछी है 
ईंधन भरा इंजन बेतरतीब चले है


ढलन में फिसले जाती
चढ़न पे ; धक्के से चढ़ती नहीं है


आधे सुर है अधूरे बोल
ताल बेताल नृत्यलीन नृत्यांगना 


मोहिनी सी इठलाती हुई
मदमत्तगर्वित हथनि सी चलती है

चलो ! आज हम भी झुनझुना बजाएं

चलो ! आज हम भी झुनझुना बजाएं 

थोड़ी आवाज बना थोड़ा स्वर फैलाएं 
अल्लाहु जीसस जय श्री राम के तीर 
और समुद्र की छाती पे पत्थर तैराये

चलो ! आज हम भी झुनझुना बजाएं ..................

रेत में उगे खारे खरपतवार हाथ में ले 
टंकार जयघोष की हुंकार संगठित हो 
एक दूजे की गर्दन को निशाना बनाये 

चलो ! आज हम भी झुनझुना बजाएं ..................

अपने  ही खेत अपने ही लहू सींचे हम  
लाल और स्वस्थ सेब/अनार/ चुकंदर  
इक अनोखी ! खुनी फसल उगाएं हम   

चलो ! आज हम भी झुनझुना बजाएं ..................

इस खुनी त्यौहार में आमोद प्रमोद हो 
रंगो के छींटे उड़े , होली का त्यौहार हो 
सत्युग द्वपर को इकसाथ तै करे हम  

चलो ! आज हम भी झुनझुना बजाएं.....................

करुणामय दयावान "वो" चाहता है !



सुना है चिर-दयावान ने फिर किसी को -
मित्र का ख़िताब दिया ,
अपने पास बुलाया , प्यार से सहलाया-
फिर घुटने पे बैठाया
प्रेम से कुछ दाने खिला आश्वासन दिया-
दो वख्त रोटी का
मौसम से बचाव का वादा कर , देह को -
वस्त्रो से लाद दिया
प्रकर्ति के विपरीत चल स्वउपलब्धियों -
की शान से बंधे हुए

पुचकारते पट्टा बाँध एक एक को
धीरे से पालतू बना लिया
अलगअलग दायित्व सौंप जिम्मेदारी-
का पाठ प्रेम से पढ़ा दिया
तो कोई पिंजरे में गीत गाता, अद्भुत !
वो दयावान प्रशंसा पाता है
वो पालतू बन आज भी उसी मित्रता का
आश्वासन तले बोझ ढोता है

औ चतुर सुजान करुणामय दयावान
अपने ही जैसे दूसरे को
मानवता को संवेदनाओं का पथ देता
भाव संवेदनाओ से बाँध -
मित्र कहता , चाहता ! उस "एक" मे वे
चार गुण सिमट आ जाएँ
क्यूंकि मनुष्य सामाजिक है, दयावान
करुणायुक्त धार्मिक है
वही अब आध्यात्मिक हो उन मित्रों को
नेति नेति के संदेश देता है
कहे-'किसी और से नहीं अपने दिल औ-
दिमाग से तेरा हाल-बेहाल है'


22 02 2016

ऐ भाई ! जरा देख के चलो ! ( कविता )


दुकानो के सैलाब है, खरीदारों की भीड़ बेशुमार है बे-साख्ता गफलत में उसे अपनाना सरल होता है चल पड़े ही हो अगर ! तो चलते ही जाना मुसाफिर फिसले तो ठीक है लौटना मुम्किन न कभी होता है ऐसा भी होता है अक्सर रिन्द के मैखाने में जाकर उसका जाम पकड़ें कि पहले खुद को पीना होता है उसको समझने से पहले, खुद को समझना होता है अदब से सर झुके पहले खुद रूह से मिलना होता है