Sunday, 22 November 2015

आवर्तन






सूक्ष्मतम की बात करे , या महत्तम की
आवर्तन आच्छादित हृदयस्थल मैं का  

श्वांस से सूक्ष्मतम आत्म तत्व  है मेरा
श्वांस श्वांस आवर्तन ही लेता देता तन

आत्मतत्व ही जो ठहरा हुआ बृहत्तम में
प्रत्य्आवर्तन विधिलेख पुनःवापसी का

तो कहाँ से शुरू करे समझे आवर्तन फेरे
अनगिनत है शब्द अनगिनत उनके घेरे

आओ बैठो ध्यान धरो, हे मौन सन्यासी
व्योमस्थित प्रकाशबिंदु की सुनो उबासी  

क्यूंकि व्योम ने पाये है घूमते स्व धुरी पे 
अनेकानेक नित उदय होते कणसम खंड 

व्योम से जुड़ के मेरे " मैं " ने पाया नित्य 
कभी न नष्ट होते रूप बदलते स्वरूप को।  

No comments:

Post a Comment