Wednesday, 18 November 2015

पन्ने पे लिखी स्याही की इबारत पे न जाना

बात जरा सी, ये तरंग  की है 
छूना, देखना, सुनना, कहना 
समझना तारों की झंकार को 
स्वर लहरी में मत खो जाना !
पन्ने पे लिखी स्याही की इबारत पे न जाना
वो तो दिमाग में उपजे मात्र विचार प्रवाह है
साफ़ खाली रास्तों पे , ज्यूं  पूजा थाल लिए
मंदिर को धीरे से स्वतःपुजारी बढ़ जाता हों
तरंग जलस्नानित भावशब्द कागज पे फैले 
मानो वांछित पुष्प प्रिय को समर्पित हो गए .....

( किन्तु मन में भाव समर्पण नहीं पूरा सा )

ज्यूँ  हृदय में चक्रवात मंथन उमड़  रहा हो
नैसर्गिक सुगन्धित पवित्र स्पष्ट सरल भी 
" मैं " कलम स्याही से भर चलने लगता हूँ
संग्रह होते से  बेखबर ऊर्जा आज्ञाकारी बन
कैसे अद्भुत दृश्य  उपस्थित  करती जाती
मैं  कठपुतली सा नृत्य मंच पे करता जाता…

(किन्तु फिर भी क्षोभ  नृत्य  नहीं अनुकूल )

अप्रतिम सफ़ेद  कोरे  अनलिखे  कागज पर
इस उठते चक्रवात में अजब ऊर्जा का संग्रह
क्या कहूँ  क्या नाम दूँ  निःशब्द हूँ, मौन मै
पर  मेरी कलम की स्याही का स्रोत  यही है
नहीं जानता कौन है जो यहाँ हिलोरें लेता है
वो स्याही बनके कोरे कागज पे है जो बहता ……

(किन्तु मन में  दर्द  अपने ही अधूरेपन का )

पर  उभरता अर्थ  कुछ और ही बन जाता है
न वो  सरलता  न वो  महक  न वो ताजगी
कुछ वैसा नहीं गहराई में वो उभरा था जैसा
फिर भी  जो उभरा आप ही पवित्र बन गया
व्यवस्था और आचरण का प्रतीक बन गया
पते की बात एक छूना तो अंतर्धारा को छूना ....

( मानव जीवन सम्पूर्णता को तू पा लेना )

मुसाफिर तुम दूर राह के, मैं साथी सहचर हूँ
स्याही से लिखी इबारत ओ कलम छोड़ देना
मन्त्रों से सूत्र मांग, श्रद्धा प्रेम मोती पिरोना 
तत्क्षण पूर्ण देहाभिमान कर्मगठरी को छोड़
चल पड़ना अंदर  को , भयरहित जाना गहरे
चक्रवात अंदर, घूमते ऊर्जास्रोत से मिल लेना……

( ओम  तत्सत  नमः ,  ओम  ओम ओम )


ओम प्रणाम 

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