Tuesday 27 October 2015

फिर मिलेंगे चलते चलते



( कपास का एक रेशा युवा तन मन की कहता कहानी )
*
ठंडी हवाएँ मद्धम मद्धम
खुशबूदार फूलों के बीच बैठा "मैं"
कपास का एक रेशा
हवा में उड़ता आ बैठा मेरे हाथ पे
हाँ !! बोल सकता था वो , पर
मेरे युवा जज्बात भूत भविष्य
में कैद कुछ करने को आतुर थे
उसे सुनने को युवा कान राजी न थे
उसको ले के डब्बे में बंद किया
चल पड़ा कारीगर बन के
चढ़ाया लूम पे धागा बनाया
ताना बाना जोड़ चादर बनी
फिर रंगरेज बन रंग चढ़ाया
और चित्रकार बन चित्र उभारे
कलाकार तो दिल में रहता था
महफ़िलें, समाज-स्तर, दोस्त
नृत्य-संगीत सौंदर्य का दीवाना, 
सामान्य असाधारण प्रतिस्पर्धी 
ऐसा "मैं" व्यवसायी बन उसका 
दाम लगा, बाजार जा बेच के 
कुछ कौड़ियां मुठी में ले आया
कुछ यूँ जीवन का कारोबार चलाया

यहाँ से आगे की सुने कथा रेशे की जबानी :-

बिका बाजार में फैशनवर्ल्ड के हाथ
काट पीट के मशीन पे डाल मुझे
देह पे चढ़ने योग्य बनाया
युवा युवतियों में स्पर्धा का आधार
चमकीली रौशनी के नीचे पहन
रैंप पे कुमार-कुमारियों ने वाकटॉक किये
चलचित्र पे अभिनय के अंदाज भरे
अपने अंदाज में दिलों पे हस्ताक्षर किये
किन्तु किसी गरीब तक पहुँचने के लिए
कई देहो से मुझे समयबद्ध गुजरना पड़ा
तब जा अंत में जरूरतमंद तक पहुँच
रेशा फिर से रेशा रेशा हो गया
हवा का झोंका आया तो
गरीब की देह से उड़ के
फिर बैठा आ उसी के हाथ पे
हाँ ! वो वहीँ उसी जगह मिला ,
नितान्त अकेला और दुर्बल
पूर्व परिचित अपलक निहारता
इस बार वो उठा भी नहीं सका
मुठी में मुझे बंद कर नहीं सका
अशक्त इस बार तैयार हुआ था
मुझसे मौन भषरहित वार्ता करने को
किन्तु उसकी देह ने भी साथ नहीं दिया
और मैं ही चादर बन छा गया उस पे ।
न वाक् संवाद हो सका इसके-उसके बीच
एक कहने को उत्सुक दूजा सुनने को
आह ! फिर समय ने साथ न दिया
न हम कह पाये न तुम सुन पाये 
मानुस की अंतहीन दशा कथा पे 
बिजलियाँ कड़कती है , तो
आसमां हर बार रोता है , 
आँधियाँ जोर लगाती है
माँ-मध्य ह्रदय धधक कम्पित होता है
पर सिलसिला यूँ ही चलता है
वो यूँ ही हरबार खुद को खोता है .....!
आह ! कठोर काल ,
कभी तो रेशा कहेगा वो दास्ताँ, 
जिसमे समाये हों दोनों जहान
तीसरा जहान ...... " मैं
उस समय का मध्य में साक्षी बन 
योगी योग में अविचलित अटल खड़ा हो।

from Sufi Heart

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