Sunday, 13 July 2014

Soul-Walk-Path


knows well, directional moves !  there thy shines ample light


focused  moves are steadfast
on hard to walk  muddy road.
bump&jump thorny bush await
tells! believes on shank’s walk.

valley found in nose’s direction 
another side steep hills in path.
amid rocks among narrowpass
move-in with inner fidelity&faith.

sometime amazed on hilly walk
follow sunshine just back to me.
but have to brilliant move ahead 
well ! knows mine direction right.

middle of forest valley is deep
shrubby slippery wild lives too.
great noisy river flowing down
wise i’m , enough think to well.

can’t take anoia shortcut to leap 
must follow all comes twist&turn.
very careful i’m on soulful walks
confident i’m ; cause focus right.

believes full on ray of Sun-shine 
each  step of walk towards to thy
directional focused calculative i've 
knowing well! hoax in front of eye.

(life road not always as good as shown in picture,just believe and continue on walks  ) 
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Friday, 11 July 2014

कांटें का साझा



इसे अनुभव कहो या  जीवन का फलसफा 
असंतुलित पलडे  प्रयासरत  संतुलन  को 

आंतरिक कम्पन से जूझते संतुलित पलड़े 
ठीक मध्य में कांपता  थरथराता  सा कांटा 

परम  मौनी  काँटा कभी कुछ बोला ही नहीं
आंदोलन  ही उसके असंतुलन संकेत देता

संघर्षयुक्त प्रयासरत वांछित  संतुलन को 
अथक परिश्रम मध्य में रुकने को इक्छुक 

किन्तु मध्य में ठहरा कांटा ही संतुलन नहीं
इस पार उस पार का  झुकाव  भी संतुलन है

झुका नीचे जो वजनी था हल्का ऊपर  गया
स्वेक्छिक कार्मिक बोझ बोध  से बैठ गया  

कहता रहा नहीं राजी  एक भी वजन देने को
तुम बढ़ा लो अपने में अपना कार्मिक  वजन

हास्ययुक्त अजब दास्ताँ  कांटे के साझे  की  
बिन साझा कांटे से  बँधी विवादित सुस्थता 

जारी है संतुलन के विभिन्न क्रम  महीन का 
जो थोड़ा इधर कभी औ कभी थोड़ा उधर हुआ 

अपना तराजू पलड़ों का अपनाअपना संतुलन
एकही तराजू के दो पलड़ों में मिलाप हुआ नहीं  

अपना पलड़ा, अपना संतुलन, कांटें का साझा  
वाद से पल्ला  झाडा यूँ पलड़े ने  किया  साझा 

संतुलन सुन्दर एक बना काजी बोझ  से राजी 
इक ऊपर उठ चला भारविहीन बन हवा केसंग  

सम्भलना ! कोई भी  धारणा बनाने से पहले 
क्यूँ की एक जैसा तराजू संसार में  दूजा नहीं

स्वयं का साक्षी भाव बना मध्य में ठहर स्वयं 
स्वयं में देखो स्वयं को जान  वहीं ठहर जाओ 

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वो पुष्प अब खिलते नहीं



सभी मसरूफ है गर मोहब्बत में ऐ दोस्त !


बेगैरत साजिशो को अंजाम कौन दे रहा है ?


माना  अमन  चैन हर तरफ है  फैला  हुआ 

तो  कराहने की आवाजे कहाँ से आ रही है ?


कही  धुंधलका शाम  का  कही धुंआ रात का 


कही शम्मा सुलग रही , तो कही बुझने को है  


खामोश हवाये रात  के सहमे हुए से सन्नाटे 

झींगुर की गुनगुन और उठती दबती आवाजे 


चीरते  सन्नाटे को कुत्ते का रोना मुह उठा के 

माँ का घबरा के  लाल को सीने से दबा लेना 


घर के कोने में सहमाँ बैठा आदमी का बच्चा 

पापा का कहना,' बेटा समय से घर आ जाना ' 


दरवाजे मजबूत कुण्डिया  लोहे की खिड़कियां 


फिर भी  कालोनी के गेट पे चौकीदार  बैठा है 


गेट के बाहर शातिर इंसान घात  लगाये बैठे है 


धायं की हल्की आवाज़, सासो का बिखर जाना  


बटुआ घडी पर्स  चेन गाडी  कार्ड जो भी है गया 


रपट को गए , दरोगा बोले पहले सबूत ले आओ 


महिलाओं की क्या अभी मंत्री जी नहीं सुरक्षित 


बच्चियों की क्या सोचे, घर का कमरा काफी है


आज कवि की कविता से सुर्ख प्रेम-लहू टपक रहा 


प्रियतम तुझको दे सकूँ वो पुष्प अब खिलते नहीं 




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Thursday, 10 July 2014

मै समय हूँ



मैं ही हूँ महाभारत कथा का नाकारा सा हिस्सा

जिसके ऊपर रखा है , तमाम हत्याओं का बोझ



और मैं मशगूल हूँ , किस्से और कहानियों में


सुनने और सुनाने में , थोड़ा वक्त बहलाने में



तुम ही हो वो गांधारी , मैं आज का धृतराष्ट हूँ


सच दिखता नहीं जानने का प्रयास करता नहीं



तुमने मेरे अंधेपन को बढ़ा के खूब साथ दिया


कैसे पट्टी बांधे मात्र कौतुहलवश वार्तालीन हो



एक संजय चाहिए हर वक्त कथा सुनाने के लिए


दिल बहलाने के लिए और भाग्य कोसने के लिए



चीर फाड़ कर फेंक किया तहस नहस सब पल में


वख्त बदला आज दुर्योधन अर्जुन मिलेजुले लगते 



कृष्ण सभी में धुंधले द्रौपदी कुंती गांधारी चहु ओर


धृतराष्ट्र धर्मराज अर्जुन की खिचड़ी आजका राष्ट्र



कोई नहीं मरा कभी, सच ! कोई नहीं कभी मरता


रूप बदल के भेस बदल के सब आज भी मौजूद हैं 



तुम्हारे अंदर मेरे अंदर सबमें महाभारत मौजूद है


समाज देश परिवार सब में मेरा ही तो अस्तित्व है



पहले अलग पात्र थे अलग कार्मिक मुकुट पहनाये


अभी सभी में सब है छद्मी जानते है बचना बचाना



क्या कृष्ण हमेशा से सिर्फ नीतिपरक कृष्ण ही थे


क्या दुर्योधन सच में सिर्फ कपटी दुर्योधन ही था !



अर्जुन सिर्फ अर्जुन ही थे क्या सदा सदगुण भरपूर 


धर्मराज क्या कभी साधारण से युधिष्ठिर नहीं बने !



धृतराष्ट्र गांधारी क्या हमेशा लाचार थे या हो गए थे


क्या तब भी हर पात्र , हर वख्त, हर एक में रहता था 



शंका उठी है , आदमी तब भी थे आदमी आज भी है


तब भी महा भारत था और आज भी महा भारत है !




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" cause of body temple "



several  expressions  through  tem 

cause of hands able to touch n feel

absorb frequency by hearing ability  

talk're possible cause twisty tongue

taste of food able to enjoying much

precious novelties're visible to eye

pace of hands're grabbing freedom

perfervid walk cause healthy shank  

emotions to make love felicific talks 

droll and jibe and embrace beloved 

top of top controls all mind is sharp

over to all maund is rapid and swift 

with gratitude richest  i,m with regal 

apart of  blessed  we, so many ways  

senses're satisfies and  joy to lavish 

umpteen thanks God to every thing

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Wednesday, 9 July 2014

All about my Poetry !



deluge tide on intents, is my poetry 
plane on ocean-wave, is my poetry 

tiny boat and ride upon hilly stream 
jumpy-bumpy splurge, is my poetry 

goes high up more up touches skies 
makes waggle swings, is my poetry 

making swing high long and  swirly 
loses all heart controls,is my poetry 

come out from cocoon wear colors  
spread wings  fly long, is my poetry 

makes bloom self  fresh and fragrant 
oozes alike dew drops , is my poetry 

gleeful aqua-bubble cramoisy dreamy
so far does dance in rain, is my poetry 
                          

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लेखनी ! कुछ तू ही बता के क्या लिंखू !



लेखनी ! कुछ तू ही बता के मैं क्या लिंखू 
अथाह प्रेमसागर में भावलहर उठती नहीं 

गीत जो मन को लुभाये, जुबा पे आते नहीं 
उथली चमक तन्हाई भरी भीड़ भाती नहीं 

मौन संवाद का मर्म और भी गहरा हुआ है  
संवेदनशीलता की तरंग वो मिलती नहीं है 

जीवन बना सरलतम  हैं भाव हुए सुगन्धित 
दीप प्रज्वलित पर अँधियारा घुलता नहीं है 

झरने नदी सागर छलछल कर बहते जाते 
खुशियो का बहता सिलसिला रुकता नहीं 

ज्ञान से संवाद करना हो तो कैसे क्या कहूँ 
आनंद का  बहता जल कभी  रुकता नहीं 

सोचती हूँ, अज्ञान से संवाद तो कैसा होगा 
कहेगा- तू कौन अंजान है पहचान नहीं है!

लेखनी बोली जान कवी हृदय कथा व्यथा 
थाम मुझे हाथ में स्याही ले कोरा पन्ना उठा 

लिख- करुणाधाम हृदय हो प्रेम का बसेरा 
ख़ुशी की बगिया में कोलाहल हो पाखी का 

लिख- जीवन बने सुगन्धित पवन का झोंका  
बहता बहता बन बैठे 'तारा' गगनमंडल का 
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