हाय रे ! मेरे मन छलिया
क्या खोजता तू और किसे छलता है
अपना जलता मन-दीपक
हृदय स्थल में साथ ही तो है
महसूस किया है इसके गीत को
संगीत देता हुआ जीवन की लय पे
पवित्र लौ के प्रकाश से उज्जवल हो
दिखाता तो है मार्ग का इस घने अंधियारे में !
वैसे तुझे पता था के प्रियतम गेह कहां है!
किस राह से गुजर उसका मनदर (मंदिर) मिलता है !
कभी इस ह्रदय ने साथ नहीं दिया और
कभी हृदय के साथ बुद्धि भी विपरीत हो गयी,
मेरा "मैं" बुद्धि और भाव से स्वयं को उलाहना देने लगा
देखो ! सही द्वार...सही वख्त पे खटखटाना
कहीं गलती न हो जाये , देखो ! कहीं चूक न जाना
कई बार पहले भी, उसके भी पहले
मेरा मन तेरे दर से मिला भी, पर लौट आया ,
तुझे पा के भी न पाने का अभिनय जो था
वो मेरा ही अहं था
वो मेरा ही अहं था
जिसमे मुझे असीम रस था... वो तो मेरा परम सुख था
इसका पता मुझे चला तब, जब ....
जब, उस अनुभवी के कहने पे
श्रधेय के प्रति अधिक शृद्धायुक्त हुआ
श्रधेय के प्रति अधिक शृद्धायुक्त हुआ
मैं , वहीँ , ठीक उसी द्वार पे पहुंचा
एक बार फिर , जहाँ से
कई कई बार... पहले भी
मैं लौट आया था
एक एक सीढ़ी चढ़ता
तेरे द्वार पे आके रुका
पहले की ही तरह इस बार भी
ह्रदय द्वन्द्व में था
बहुत कुछ पीछे छूट रहा था
आगे तो कुछ था ही नहीं
मात्र तेरा द्वार
जिसे मुझे खटखटाना था
और तू तनिक सी आहट पा
दरवाजा खोल देता
पर मेरे हाथ रुक गए
दौलत मेरे सामने थी
पर मैं गरीब नितांत गरीब
ख़ाली ख़ाली सा हो गया
अचानक, शून्य के घेरे
मुझे चहुँ ओर से घेर लिए
और क्षण से भी कम में
तत्क्षण बड़ा सोच डाला
अगर मैं अंदर चला गया
तो किसे खोजूंगा ?
किससे प्रेम करूँगा
और उसी क्षण
मैंने जाना मेरी खोज
मेरी जिज्ञासा व्यर्थ न थी
उसमे भी मेरा ही सुख और
कुछ खोजने का अहं छुपा था
मेरे दिन रात गुजर रहे थे
इन प्रयासों में
वख्त के बीतने का
पता भी न चला
और ये ख्याल आया ही था के मैं दबे पाँव
बिना सांकल खटखटाये
वापिस मुड़ लिया
एक एक जीना दबे पाँव उतरा,
ताकि सरसराहट भी न हो
के तू दरवाजा खोल मुझे आवाज दे दे
मैं उनी जिज्ञासाओं में,
अपनी सुख से भरी पीड़ाओं में,
वापिस एक एक कदम,
लौट जाना चाहता हूँ
लौट के , कम से कम
तुझे खोजने का काम तो करूँगा।।
हाँ ! लौट आया हूँ और प्रसन्न हूँ
अब मैं फिर तुझे खोजता हूँ
बार बार पूछता हूँ मार्ग , जो मुझे पता है
मानो ! मेरी अनुपलब्धि ही मेरा सुख है
और उपलब्धि गहन शून्य
भली भॉति मुझे पहचान है तेरे मार्ग की
पूछता हूँ सबसे
पर उस राह पे चलने से कतराता हूँ
बच के निकलता हूँ उस मार्ग से
कहीं तू सच में मिल न जाये
पर पूछता जरूर हूँ तेरे घर का रास्ता
भटकता तड़पता के कोई तो बता दे मुझे
कुछ पल को इस मानसिक-आत्मिक
योग-प्रयोग में सुखी संतुष्ट हो जाता हूँ
इस तरह मैं एक पूरा भरा पूरा जीवन जी पाता हूँ........ ।।
©लता,
बुधवार ०१-११ -२०१७ , २०:२४ संध्याकाल
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