Saturday, 18 June 2016

ढलता सूरज मैं ओ मिट्टी


बूँदबूँद घट भरा या घटा रीतारीता ये जीवन बीता उथले गहरे क्षणभंगुर से जीवन पे क्या क्या बीता अपने सपने सपने अपने बैरी कौन हमसाया कौन दुविधा में हैअन्तर्द्वन्द्व भी खोयापाया दोनों ही मौन हारा ; अपने सब आगे थे जीता; तो वे सब छूट गए मुझ मे अच्छा था या बुरा जिसे जो चहिए था लिया वख्त ए फलसफाअजब साल गए पल जाता नहीं मुक़द्दस कभीआता नहीं मुक़दर कहीं जाता नहीं इसी रीति का गान करूँ तनहा था, और तनहा हूँ आप मुझे पहचानते रहो मेरी हदें मुझ से खुश है! खुद को ही समझ पाऊँ खुद कोही महसूस करुँ इससे ज्यादा, चाह नहीं ! इससे कम,स वाल नहीं ! लहर किनारे बैठ बैठ के गीली रेत पे महल बनाया यूँ चाँदिनी में बरबस उस नम रेत से जा लिपट गया ठहरन में भी खलबली है अजीब दौड़ यहाँ लगी है ढलता सूरज मैं ओ मिट्टी अक्सर ढेरों बातें करते है
© Lata - 18 06 2016

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