Wednesday 16 September 2015

फकीरा


न कोई जंगल न कोई शहर ,
न अजनबी मंजिलों के सुराग
न कदमो के ही मिले निशाँ
न भीड़ बेशुमार
न हीअकेला है मौजी 
कौन सी मिट्टी
कैसा उड़ता तिनका

न ही आरजू
न हसरत का जमावड़ा !
अन्जान अश्क जो बहे
हवा के दुलार से सूख चले
कौन भटकता है !
कितना ! कब !
किसके लिए !

बेबाक है ये बेख़ौफ़ है ,
बांधना किनारो को जरा
सजग सतर्क मजबूती से वर्ना
मजबूत सी लगती चट्टानों को तोड
रेत् बना पल में साथ बहा ले जाएगी

सोचने वाली बात ये की
कवि की कविता खुद में बे_बांध नदी है ..

(this is the reply  to Gulzar Sahab on his one  poetry -
चार तिनके उठा के जंगल से
एक बाली अनाज की लेकर
और चंद कतरे से बासी अश्क़ों के 
चंद फाके बुझे हुए लब पे 
मुट्ठी भर अपने कब्र की मिट्टी

मुट्ठी भर आरज़ुओं का गारा
और एक तामीर की लिए हसरत
तेरा खानाबदोश बेचारा
शहर में दर-ब-दर भटकता है

तेरा कन्धा मिले तो सिर टेंकुं ..!
~ गुलज़ार
boundary_less emotional flow is not good for self than how it become good for all , control ! than with out excessive emotional flow how poetry of poet become popular , point to think ! )


A  thought  become  the small  story  which is  flows  in mind  sharing  here :-

फ़क़ीर आगे आगे चला जा रहा था , गढो से और कीचड़ से भरी वो कच्ची सड़क धूल से भरी , आव देखा न ताव चुल्लू में धुल भरी और बिना पीछे देखे फेंक दी , उसके पीछे चलने वाले कुछ जिज्ञासा से भरे थे कुछ मजाक उड़ा रहे थे गिनती के कुछ लोग थे जिनकी आँखे नम थी ,शायद गाँव छोड़ के जा रहा था , फकीरों का क्या ठिकाना ! उसके धूल फेंकने पर उन्ही में से कुछ ने घबरा कर अपनी आँखे बंद करली , कुछ ने चाल धीमी कर ली की चलो थोड़ी धुल कम पड़ेगी , कुछ ने चादर से खुद को ढक लिया , गिने चुने थे जो उस धूल में से मूल्यवान झोले में डाल रहे थे . और फ़क़ीर सबसे बेखबर आगे ही आगे बढ़ता जा रहा था ( मोल भी आवश्यकता से निश्चित होता है अब सब बेमोल हो गया ) धुल पीछे को फेंकते जा रहा था , सभी बुद्धिमान थे , अपने अपने स्तर पे , बुद्धिमानी से वांछित चयन कर रहे थे। सभी संतुष्ट थे। फ़क़ीर भी।
Lata

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