Wednesday, 16 September 2015

साक्षित्व


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साक्षित्व भाव-तरंग कुशल-योद्धा सी
सागर में उतरी नाव के पतवार जैसी
जिसके सहारे लहरों के ऊपर तैरते 
जीवात्मा बनता जाता मत्सिका जैसी
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अनंत विस्तृत नभ इसका अपना नहीं
धरती गगन सौर मंडल है समाये इसमें
जिसका कण कण स्वयं नृत्य संलग्न हो
पिंड ब्रह्मांड हुए इसके गान में संभागी
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साक्षित्वदृष्टि संकुचन विहीन होते होते
विस्तृत व्योम पार सहज उठती जाती
स्वीकृत चक्र,विज्ञत अदृश्य पथ गमन
स्व / समूह को क्यूँ छोड़े/ पकडे साक्षी
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इसकी भाषा जो दोहराये वो मदांधित
संग चले प्रेम से , भव-सागर पार होये
सूक्ष्म से विस्तृत जुड़े पलपल कर्म सुई
दो चाक बने जीवन, ग्रहपथ घेरा घडी

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