Tuesday, 28 November 2017

इश्क़ जरुरी नहीं ...


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इश्क़ जरुरी नहीं एक मुज्जसिम से ही हो, तो हो,
क़यामत इक कायनात इक दीदार की ख्वाहिश से भी इश्क़ दीवाना हो सकता है 

दीये की इस थरथराती लौ की कसम है, इश्क!
हवाओं से मायूस से लुपलुपते दीयों में उम्मीदों के तेल से रौशनी बिखेर सकता है 

इस कदर मासूम महकता खूबसूरत रंगीं गुनाह
फूल तो फूल हैं, बेजान पत्थर में भी, ये अहसास एकबानगी जान फूंक सकता है 

इश्क़इबादत इश्क़खुदा इश्कमासूम सबसे जुदा
इश्क कीजे फिर समझिये इसके गहरे रंग क्या! जिद आये रब से मिला सकता है

© lata, tusday 28, Nov, 2017. 12 :02 pm

Monday, 27 November 2017

'seven pin-point words'

Short poetic 'Seven pin-point words'

1- I "love" to you my sweet pink lotus...

But
2- I have infinite "fear" of you and from you...

wanna communicate
3- I am In hunger always, have an empty stomach which is "In demand" for more n more.....

Conscious:
4- My Heart has "diamond-light" to show me the path...

So that ;
5- My "dedication" is towards your's Only

Results
6- I "command to control" yourself; cause...

Finally, I awake and know well 
7- I "love" you so much my sweet blue lotus...

Saturday, 25 November 2017

और मिलन क्या है !



एक  बेहतरीन  ग़ज़ल  को एक  बेहतरीन साज, छिड़ी सुन्दर गंभीर
आवाज़ मिले जानो मिलन हुआ 
इसी तरह  बेहतरीन  आवाज  को  बेहतरीन  ग़ज़ल और गठा हुआ
साज मिले तो जानो मिलन हुआ

इठलाती तूलिका बोल पड़ी- रंगो का साथ तब  दूंगी, जब कलाकार
की उंगलियाँ मुझे आ के मिले
कलाकार बोल पड़ा- उत्तम  चित्र तब बनाऊंगा जब रेखाएं ठीक से
बने तब जाके रंग भर पाऊंगा

यशस्विता बोली मुझे कर्मठता से मिलन चाहिए लो सम्मान अंगडाया
मुझे भी ऐसा मिलन चाहिए
देह भी कैसे चुप रहती यकबायक बोल पड़ी- मुझे भी तो अंतर स्थति
स्व-आत्मा से मिलन चाहिए

देह की बात सुन अचकचाई जरा आत्मा बोली- तुमसे नहीं मुझे परम्
आत्मा से ही मिलन चाहिए
कब से परमात्मा भी कुछ बोल रहा, मौन गहरा, मौन में ही सुना उसे 
भी समतुल्य मिलन चाहिए

पर आखिर ये मिलन है कहाँ जो सब को चाहिए तो असमंजस जान 
के मिलन खुद ही बोल पड़ा-
मैं सुखद दुखद दो पलड़ों का संजोग हूँ जो खुद अधूरा है अपने पूर्ण
मिलन को युग में विचरता हूँ 

कड़ी से कड़ी जुड़ती बनती शृंखला का नन्हा सा जोड़ हूँ,मुझे तो मेरे
सृजनहार से मिलन चाहिए
ज्ञानी को ज्ञान, वैज्ञानिक को विज्ञान, कलाकार को मिले कला, भक्त 
रो रो कहे - मिलन चाहिए

कड़ी से कड़ी बढ़ती जाती मिलन की भी कथा अनूठी श्रृंखला विस्तृत
दर्शन से पूछा मिलन क्या है !
वो बोला- अनंत विस्तार पे भार अथाह आत्मा सहे ,हैं कर्मभोग के योग
बस और ये मिलन क्या है  !

भक्त ज्ञानी विज्ञानी कलाकार से पूछा जाना,सोचा के प्रेम क्यूँ वंचित रहे 
पूछते है के ये मिलन क्या है
प्रेम बोला- प्यारे खुद  भटकता समय के अंचल में अधूरा हूँ , जा मिलूं
प्रीतम से और मिलन क्या है!

© लता २५-११ -२०१७ , शनिवार १३:४२

Thursday, 23 November 2017

बेटी: प्रेम सच में उसके दिल में रहता है (find elnglish expression also)

हाँ ! मुझे सचमुच् लगता है प्रेम उसी के दिल में रहता है उसकी आँख में उभरते सौंदर्य का अक्स सुन्दर होता है वो बच्ची थी अपनी माँ में, विश्वास भरा सौंदर्य देखती थी माँ से तारे मांगती और हरसिंगार के फूलों से खुश होती वही युवती पिता-पति-भाई-मित्र-संबंधो में खुश्बू हो गयी वो ही बेटी अब हरसिंगार तोड़के अपने तारों को देती है वृद्धा बन सौंदर्य बहु बेटा बेटी दामाद में फ़ैल पसर गया कली से फूल बनती आवंटितअध्यायों को जीती हुई जब जब अंतिम शय्या पे लेटी तो अपने परमप्रेमी को चल दी मुझे भरोसा पक्का के प्रेम सचमें उसके दिल में रहता है

 © लता
THURSDAY 23 NOV 2017, 21:34

tried below expression in English

Yes ! I really feel love lives in her heart

Yes ! I really feel love lives in her heart
The beauty of each rising shadow of her eyes is beautiful

She was a child, looked at her mother, believing beauty of mother
asked for the stars to mother and get happy with similar Harsingar flowers 

The same maiden converts with the father-husband-brother-friend further in a fragrant relationship
That same daughter now picking Harsingar(star-like flowers), on asking of her little stars

Older beauty spreads fragrance further among daughter in law- Son, daughter and son-in-law
Rises from bud to flower and Winner of allocated chapters.

When the last bed has been put down, then she walked towards beloved
I believe the love of a true one lives in her heart.

Sunday, 19 November 2017

ये अहसास ही अलग होता है



जब सुनती हूँ, उच्च-शिखर छुए हुए  से
माँ  कारन है जो मेरे लिए आदरणीय है

जब सुनती हूँ किसी सम्मानित पुरुष से
सुंदर- उत्तम-कृति पत्नी ही तो कारन है

ऐसे किसी की भगिनी, किसी की सखी
किसी की प्रेमिका शिखर का सम्बल है

कुछ यकीं तो होता है ईश्वरीय विधान पे
स्त्री तेरे जन्म पे अनायस गुमान होता है

वैसे पितृत्व-भाव का भी तो मोल नहीं है
प्रथमजन्मदात्री धारणी तू अधिकारिणी

प्रथम याचक पितृत्व कृतज्ञ हो जो तेरा
तो! स्त्री-मातृत्व का मान अलग होता है

हाँ ! यदि स्त्री स्वीकृत कर सके स-गर्व
शुभसंतुलन देवतुला-पलड़ों का होता है

© लता - १९/११ /२०१७ , २०:१५ 

सपने जागती आँखों के

नाजुक पल जो घट गए कुछ क्षणों की तरह
और ! ठहर गया हर पल एक साल की तरह
वो जो कह के भी नहीं कहा, कैसे कहूं उन्हें 
महसूस मैंने किया कहो कैसे कहूँ सब तुम्हे

(Sat 18 Nov 2017, 21:59)

बीती रात 
खुली आँखों से 
देख़ा मैंने
सजी नुमाईश
दुकानों की 
लगा सामान
करीने से
जगमगाहट
रौशनी की....
उस नुमाईश में
कुछ थे मौन
कुछ मुखर
भीड़ में पर
सभी अकेले .....
ये एक दो
की नहीं समूचे
हुजूम की है बात
क्या नन्हे
क्या बूढ़े
और सभी युवा
अपनी यात्रा के
साक्षी किन्तु संग
सहयोगी भी थे
स्व समूह की
सामूहिक यात्रा के
वे सभी, जो कभी
हस्तयंत्र की
तरंग से जुड़ते
तो कभी
मुस्करा के
आसपास की
तरंग से जुड़ते
पर थे सभी
संग संग
बीती रात
मुट्ठी भर
नाजुक पल
जो घट गए
कुछ क्षणों
की तरह ...
और
ठहर गया
हर पल,
एक साल की तरह
वो जो
कह के भी
नहीं कहा
कैसे कहूं उन्हें.......
महसूस
मैंने किया
कहो ......!
कैसे कहूँ सब तुम्हे ?
मदहोशी का आलम
गजब नशे का दौर
उन हालातों में
जो घट गए
कुछ क्षणों
की तरह ...
और
ठहर गया
हर पल,
एक साल की तरह
कैसे कहूं उन्हें.......
महसूस
मैंने किया
कहो ......!
कैसे कहूँ सब तुम्हे ?


© लता 
completed by Sun 19 Nov 2017, 09:07

Thursday, 9 November 2017

मदद को हाथ बढ़ाइयेगा,पर ...


कुछभी कहिये लिखिए बोल लीजिये पर मान न कीजिए 
बांस की देह है ये इसमें अपना क्या है! कुछ भी तो नहीं 

जहाँ तक साथ हमारा, आईये! संग में, संग चलते रहिये 
जितना भी फ़ासला है मिल-जुल, यूँ ही हम तैय कर लेंगे 

मेले के मंजर है, धक्का दे के आगे बढ़ने वाले हजारों है 
गर अफरातफरी में गिर दब भी गए, कोई इल्म न लेगा 

बारिश के मौसम फितरत अपना आशियाँ बचाने की है 
भीड़ से बच के, किनारे किनारे कदम संभाल के रखिये 

रुकिए जरा आप फरिश्ता भी बन जाईयेगा मुश्किल में 
बेहतर, पहले खुद संभलें, तब मदद को हाथ बढ़ाइयेगा 

©लता Thursday, 09, November 2017, 17:08

Tuesday, 7 November 2017

और विशाल काल की गाथा कह डाली नन्हे बीज ने

हे बुद्धिशील! 

सिर्फ बहते काल का ही न बदले फिसलता ये वख्त   
उसके इशारे यहाँ वहां हर जगह हरसु बिखरे हुये है  
दूर "उस" काल के गर्भ में पलते कालबीज को देखो 
तुम्हारे बहते समय का इशारा वही तुम्हे देता मिलेगा

हम सब समस्त यूँ ही जन्मे-मिटे एक राई फर्क नहीं 
चार आश्रम है ज्यू हमारे वह भी चार युग में रहता है 
ज्यूँ बाल से युवाअल्हड होती देह प्रौढ़ से वृद्ध हुई है 
शिशु, युवा होता हुआ काल भी प्रौढ़ से वृद्ध हुआ है 

कैसे सतयुग से त्रेतायुग, द्वापरयुग से कलियुग आये
और विशाल काल की गाथा कह डाली नन्हे बीज ने 
इक पौधे का जीवन आज  बहुत करीब से मैंने देखा 
शक्तिशाली युवा वृक्ष को शिथिल ढलक गिरते देखा 

कभी उसकी बली शाख पे सौम्यकली उगते देखी है 
उस पुष्प को यौवन के रंग से भर झूम इठलाते देखा 
बहते समय में सुखझड़ उसे धुल में गिर-मिटते देखा
संभव था देखना उसका जीवन-चक्र मुझसे छोटा था 

और ये जीवन-चक्र भी उस काल के चक्र से छोटा है 
ज्यूँ देखा बीज के क्रम को, वह भी मुझे देखता होगा 
मैं हंसती कुछ वर्ष की मासूम नन्ही बेचैन कोशिश पे
निश्चित मेरी बेचैनीयों पे उसीतरह वो भी हँसता होगा

जिन्होंने बीज-काल समानांतर देखा, कोई भेद न पाया 
सुनो मौन, कहे अपने से अलग न करो, तुम्सा ही हूँ मैं
लड़कपन में अल्हड युवा प्रौढ़ वृद्ध हो मैं भी थकता हूँ 
उस बृहत्तम के नियम में न जानो मुझे बेताज बादशाह 

हाँ हूँ तुमसे निश्चित विस्तृत योजनअक्ष विस्तार ये देह है 
अपने समय को काल से जुदा न देखा जिन्होंने भी और 
जिन्होंने भी समझा गायाऔर बांधा मुझे इन चार युग में 
मापा बुद्धिशौर्य से सूर्य-चन्द्र-धरती ओर नौ गृह की लय 

उसपे बांध लिया विस्तृत को बदलते मौसम की चाल से 
बाद बांधा तपस्वि ने स्वयं को इन्ही चार वर्ण के भाग में
संग बाँधा दिव्यज्ञान से क्रमश:मुझको चार वेदप्रकार में 
सबकुछ इतना सहज नहीं था इतना भान हुआ अबतक 

अनुभव कथन को आज तुम ब्रह्म वाक्य सा अटल मानो 
बंधा जो स्वतः प्रकृति के नियम में यूँ उसे न सरल जानो
जितना सहज जो दिखता गहन गम्भीर उतना उसे जानो 
कैद में डोलते सिंह को पा, तमशाई भी ठठोली करते है 

आह्वाहन अखंड नियम का,प्रकृति जिस संग स्वतः बँधी 
काल बंध गया, अखिल ब्रह्माण्ड बंध गया तुम भी आओ  
बंधन में स्वेक्छा से बंध जाओ, और सरलतम हो जाओ 
संभवतः सरलतम से छू कर ही, पूर्ण काल गाथा जानोगे  

कणादज्ञान सूक्ष्म से परम तक जा व्यर्थ नहीं, सार्थक है! 
समय दिखाती बंधी टिकटिक कहती समय का ज्ञान लो
किंचिद समय का मान करें, जो है महावत के अंकुश में
किन्तु झूमता ऐरावत सूक्ष्मचक्र से पृथक बृहत-चक्र में है

चार अंध सम जान न सकेंगे,ना ना तर्क वितर्क कुतर्क से 
दूर गज काआकारप्रकार है,दूर उसकी पूंछ का बाल भी 

© लता Tuesday 7-nov 2017 , 17:58
edited 08-nov 2017.09:43

Auther's Note : इसे पढ़ के इसमें कई समय के साथ हो सकते है , कई बह सकते है , और कई तर्क खड़े कर सकते है , बहरहाल जो भी अनुभव में आये , कवी की लेखनी सार्थक है। इस कविता को पढ़ने से पहले कुछ व्यक्तिगत तैयारी आवश्यक है , जैसे "देह का आभास होना" जरुरी है , अपने ही जैसे आयु जीती हर देह का आभास , सिर्फ आस पास  ही नहीं अखिल सृष्टि अपने नियम नहीं बदलती  ये भाव आपको इस कविता का मर्म समझने में मदद करेगा . 🙏

Thursday, 2 November 2017

मंदिर की सीढियाँ

हाय रे ! मेरे मन छलिया 
क्या खोजता तू और किसे छलता है 
अपना जलता मन-दीपक 
हृदय स्थल में  साथ ही तो है 
महसूस किया है इसके गीत को 
संगीत देता हुआ जीवन की लय  पे 
पवित्र लौ के प्रकाश से उज्जवल हो 
दिखाता तो है मार्ग का इस घने अंधियारे में !

वैसे तुझे पता था के प्रियतम गेह कहां है! 
किस राह से गुजर उसका मनदर (मंदिर) मिलता है !
कभी इस ह्रदय ने साथ नहीं दिया और 
कभी हृदय के साथ बुद्धि भी विपरीत हो गयी,
मेरा "मैं" बुद्धि और भाव से स्वयं को उलाहना देने लगा 
देखो ! सही द्वार...सही वख्त पे खटखटाना
कहीं गलती न हो जाये , देखो ! कहीं चूक न जाना 
कई बार पहले भी,  उसके भी पहले
मेरा मन तेरे दर से मिला भी, पर लौट आया ,
तुझे पा के भी न पाने का अभिनय जो था 
वो मेरा ही अहं था 
जिसमे मुझे असीम रस था... वो तो मेरा परम सुख था 
इसका पता मुझे चला तब, जब .... 
जब, उस अनुभवी के कहने पे 
श्रधेय के प्रति अधिक शृद्धायुक्त हुआ 
मैं , वहीँ , ठीक उसी द्वार पे पहुंचा 
एक बार फिर , जहाँ से 
कई कई बार... पहले भी 
मैं लौट आया था
एक एक सीढ़ी चढ़ता 
तेरे द्वार पे आके रुका 
पहले की ही तरह इस बार भी 
ह्रदय द्वन्द्व में था 
बहुत कुछ पीछे छूट रहा था 
आगे तो कुछ था ही नहीं 
मात्र तेरा द्वार 
जिसे मुझे खटखटाना था 
और तू तनिक सी आहट पा 
दरवाजा खोल देता 
पर मेरे हाथ रुक गए 
दौलत मेरे सामने थी 
पर मैं गरीब नितांत गरीब 
ख़ाली ख़ाली सा हो गया 
अचानक, शून्य के घेरे 
मुझे चहुँ ओर से घेर लिए 
और क्षण से भी कम में 
तत्क्षण बड़ा सोच डाला 
अगर मैं अंदर चला गया 
तो किसे खोजूंगा ?
किससे प्रेम करूँगा 
और उसी क्षण 
मैंने जाना मेरी खोज 
मेरी जिज्ञासा व्यर्थ न थी 
उसमे भी मेरा ही सुख और 
कुछ खोजने का अहं छुपा था 
मेरे दिन रात गुजर रहे थे 
इन प्रयासों में 
वख्त के बीतने का
पता भी न चला 
और ये ख्याल आया ही था के मैं दबे पाँव
बिना सांकल खटखटाये
वापिस मुड़ लिया 
एक एक जीना दबे पाँव उतरा, 
ताकि सरसराहट भी न हो 
के तू दरवाजा खोल मुझे आवाज दे दे 
मैं उनी जिज्ञासाओं में, 
अपनी सुख से भरी पीड़ाओं में, 
वापिस एक एक कदम, 
लौट जाना चाहता हूँ 
लौट के , कम से कम 
तुझे खोजने का काम तो करूँगा।।

हाँ ! लौट आया हूँ और प्रसन्न हूँ 
अब मैं फिर तुझे खोजता हूँ 
बार बार पूछता हूँ मार्ग , जो मुझे पता है 
मानो ! मेरी अनुपलब्धि ही मेरा सुख है 
और उपलब्धि गहन शून्य 
भली भॉति मुझे पहचान है तेरे मार्ग की 
पूछता हूँ सबसे  
पर उस राह पे चलने से कतराता हूँ 
बच के निकलता हूँ उस मार्ग से 
कहीं तू सच में मिल न जाये
पर पूछता जरूर हूँ तेरे घर का रास्ता 
भटकता तड़पता के कोई तो बता दे मुझे 
कुछ पल को इस मानसिक-आत्मिक 
योग-प्रयोग में सुखी संतुष्ट हो जाता हूँ
इस तरह मैं एक पूरा भरा पूरा जीवन जी पाता हूँ........ ।।

©लता,  
बुधवार ०१-११ -२०१७ , २०:२४ संध्याकाल