हे बुद्धिशील!
सिर्फ बहते काल का ही न बदले फिसलता ये वख्त
उसके इशारे यहाँ वहां हर जगह हरसु बिखरे हुये है
दूर "उस" काल के गर्भ में पलते कालबीज को देखो
तुम्हारे बहते समय का इशारा वही तुम्हे देता मिलेगा
हम सब समस्त यूँ ही जन्मे-मिटे एक राई फर्क नहीं
चार आश्रम है ज्यू हमारे वह भी चार युग में रहता है
ज्यूँ बाल से युवाअल्हड होती देह प्रौढ़ से वृद्ध हुई है
शिशु, युवा होता हुआ काल भी प्रौढ़ से वृद्ध हुआ है
कैसे सतयुग से त्रेतायुग, द्वापरयुग से कलियुग आये
और विशाल काल की गाथा कह डाली नन्हे बीज ने
इक पौधे का जीवन आज बहुत करीब से मैंने देखा
शक्तिशाली युवा वृक्ष को शिथिल ढलक गिरते देखा
कभी उसकी बली शाख पे सौम्यकली उगते देखी है
उस पुष्प को यौवन के रंग से भर झूम इठलाते देखा
बहते समय में सुखझड़ उसे धुल में गिर-मिटते देखा
संभव था देखना उसका जीवन-चक्र मुझसे छोटा था
और ये जीवन-चक्र भी उस काल के चक्र से छोटा है
ज्यूँ देखा बीज के क्रम को, वह भी मुझे देखता होगा
मैं हंसती कुछ वर्ष की मासूम नन्ही बेचैन कोशिश पे
निश्चित मेरी बेचैनीयों पे उसीतरह वो भी हँसता होगा
जिन्होंने बीज-काल समानांतर देखा, कोई भेद न पाया
सुनो मौन, कहे अपने से अलग न करो, तुम्सा ही हूँ मैं
लड़कपन में अल्हड युवा प्रौढ़ वृद्ध हो मैं भी थकता हूँ
उस बृहत्तम के नियम में न जानो मुझे बेताज बादशाह
हाँ हूँ तुमसे निश्चित विस्तृत योजनअक्ष विस्तार ये देह है
अपने समय को काल से जुदा न देखा जिन्होंने भी और
जिन्होंने भी समझा गायाऔर बांधा मुझे इन चार युग में
मापा बुद्धिशौर्य से सूर्य-चन्द्र-धरती ओर नौ गृह की लय
उसपे बांध लिया विस्तृत को बदलते मौसम की चाल से
बाद बांधा तपस्वि ने स्वयं को इन्ही चार वर्ण के भाग में
संग बाँधा दिव्यज्ञान से क्रमश:मुझको चार वेदप्रकार में
सबकुछ इतना सहज नहीं था इतना भान हुआ अबतक
अनुभव कथन को आज तुम ब्रह्म वाक्य सा अटल मानो
बंधा जो स्वतः प्रकृति के नियम में यूँ उसे न सरल जानो
जितना सहज जो दिखता गहन गम्भीर उतना उसे जानो
कैद में डोलते सिंह को पा, तमशाई भी ठठोली करते है
आह्वाहन अखंड नियम का,प्रकृति जिस संग स्वतः बँधी
काल बंध गया, अखिल ब्रह्माण्ड बंध गया तुम भी आओ
बंधन में स्वेक्छा से बंध जाओ, और सरलतम हो जाओ
संभवतः सरलतम से छू कर ही, पूर्ण काल गाथा जानोगे
कणादज्ञान सूक्ष्म से परम तक जा व्यर्थ नहीं, सार्थक है!
समय दिखाती बंधी टिकटिक कहती समय का ज्ञान लो
किंचिद समय का मान करें, जो है महावत के अंकुश में
किन्तु झूमता ऐरावत सूक्ष्मचक्र से पृथक बृहत-चक्र में है
चार अंध सम जान न सकेंगे,ना ना तर्क वितर्क कुतर्क से
दूर गज काआकारप्रकार है,दूर उसकी पूंछ का बाल भी
© लता Tuesday 7-nov 2017 , 17:58
edited 08-nov 2017.09:43
Auther's Note : इसे पढ़ के इसमें कई समय के साथ हो सकते है , कई बह सकते है , और कई तर्क खड़े कर सकते है , बहरहाल जो भी अनुभव में आये , कवी की लेखनी सार्थक है। इस कविता को पढ़ने से पहले कुछ व्यक्तिगत तैयारी आवश्यक है , जैसे "देह का आभास होना" जरुरी है , अपने ही जैसे आयु जीती हर देह का आभास , सिर्फ आस पास ही नहीं अखिल सृष्टि अपने नियम नहीं बदलती ये भाव आपको इस कविता का मर्म समझने में मदद करेगा . 🙏