स्त्री; नाम पर्याय है बंधन का
स्त्री, स्वयं के लिए भी बंध है
आकर्षण भाव देह बंध है यहाँ पुरु अचेतन स्त्री निःसहय है
पुरु न बंधता न बांधता, स्त्री!
स्वतंत्रता उस्के मूलगुण में है
चूंके मामला प्रकर्ति पे रुका, दो सुजान चेतन बेबस हुए हैं
कुंडली मारे जो इक्छाओं पे
अड़चन बीजरूप वहीँ बैठी
पुरुष अंसख्यगामी संभव है स्त्री धुरी का दूसरा पर्याय है
पुरुष बेहतर कहूं के उलझी-
मकड़ी अपने जाल में फंसी
भटक चाहे कितने जाल बुने नवजाल नवाग्रह बंधक हुआ
इक स्त्री देह इक पुरुष देह
स्त्री-ह्रदय इक पुरुषह्रदय है
इक प्रेम में बंध के मुक्त हुई इक प्रेमबंधमुक्त ही मुक्त है
पूर्णस्त्रीसंग्राम स्त्री धुरी में है
पुरु का जग्रतपुरु विपरीत है
यशो कैसे रोक सकेगी उसे जो सम्मोहनचक्र से पार हुआ
ये माया चक्र जो भेद सका
वो पार हुआ माया जगत से
पर आकर्षण मोहनी बने है, सोचने ही कहाँ देते है तुझे?
भावप्रेम मोहकर्म बंध ही है
सं+बंध गृहबंध केंद्र सबका
कर्म कर्त्तव्य भोग जान मान नवज्ञानी एकबंध में तुष्ट हुआ
योग नहीं, सन्यास नहीं अब
राग न कोई, द्वेष ही है अब
इस जन्म में उत्तमज्ञानी पुरु मक्कड़जाल से ही मुक्त हुआ
© Lata-27/03/2018-08:05am
Note: बात सही या गलत नहीं , वो नैतिकता है , क्या होना चाहिए ये सामाजिकता है पर नैसर्गिक धारा अपने गुणों को लिए संग बहती रहती है , ये प्राकतिक सामंजस्य है , जो कहता है नैतिकता और सामाजिकता के बीच मेरा अस्तित्व गहरा है , मैं मूल गुणधर्म हूँ।
जगत में देह के बंटवारे के साथ ही एक पुरुष एक स्त्री में भाव में भी बंटा हुआ हूँ। ये कहता है मैं सभी सम्बन्ध से ऊपर हूँ क्यूंकि मैं मौलिक हूँ , किन्तु मैं मौलिक हूँ शुद्ध हूँ इसलिए सर्वव्यापी हूँ सभी देह में भौतिक देह से अलग मेरा वर्चस्व है , मेरा प्रभाव है।
अनुपात में ; मानव के व्यव्हार में प्रकट हूँ , प्राकट्य में देह से न मैं स्त्री हूँ न पुरुष, सिर्फ स्त्री या पुरुष भाव हूँ। इसलिए देह से परे हूँ। फिर भी देहबन्ध हूँ।
बस अंतर् इतना ही है बन्धमुक्त-मुक्त पुरुष-भाव है जो प्रकर्ति से देह से इसका कोई सम्बन्ध नहीं और बन्धयुक्त-मुक्त भाव स्त्री का। अलग अलग देह में अलग अलग तरीके से प्रकट।
ध्यान देने वाली बात है, की सम्बन्ध हमारे है , नैतिकता हमारी है , सामाजिकता हमारी है , और कॉकटेल भी हमारी ही बनायीं है , इसलिए कुछ नियम हरेक के लिए है ही। यहाँ सम्बन्ध कोई भी , सामाजिकता कोई भी हो कहीं की हो ( विश्व या ब्रह्माण्ड , चर या अचर ), जो बने बनाये नियम से मुक्त है वो है एक पुरुष भाव और एक स्त्री भाव , अब जो जानते है वो सहज आत्मसात करते है , वर्ना संघर्ष करते है।
इसलिए किसी भी सम्बन्ध में पुरुष भाव स्वतंत्रता ही चाहता है और स्त्री भाव बंधन में संतुष्ट । ( किसी भी देह का स्वामी कोई भी हो सकता है ) मजे की बात ये इनमे भी अनुपात है अब प्रकृति एक जैसी दिखे पर है नहीं।