Thursday, 22 June 2017

Weaving My Ancestor's Voice - Lata




Ever so lonely
Ever so lonely without you
Ever so lonely
Sink in to your eyes and all I see
Love is an ocean
And you for me
Sink in to your eyes
Your eyes
Are all I see
Your love is an ocean
An ocean refuses no river
Ever so lonely
An ocean refuses no river
Waiting for the time when we can be alone together
Alone together
Eternally
The ocean, the ocean
Refuses no river
The ocean, your ocean
Refuses no river
Ever so lonely
Ever so lonely without you
Your ocean
Your ocean
Refuses no river

Weaving  ancestor's voice : writer Unknown
Originally sung by Shaila chandra 

Monday, 19 June 2017

'कृतिरंग' इक संग

हर ताल में छिपी लय हर लय में छिपी धुन
धुन में छिपी सरगम,सरगम में बोलअमोल
हर बोल छिपा जिव्हा पे, दो अधरों के बीच
दो अधर बने वाद्य, लिए ताल लय सुर बोल
अधर मौन कवि के, है मुखर छंद स्वर संग
देह में थिरकन नर्तक के,श्वांस योग का नर्त
हर कृति मे सात रंग हर रंग में कृति है पूर्ण
कलाकार तूलिका में ज्यूँ 'कृतिरंग' इक संग
ब्रह्मानंद आदिदेव-देवी हंसयुग्म हो मनस में
सत्चितानंद रूप में नितप्रति आवें रमन करे
मान सरु ! तू पुष्प दीप धुप हृदय में बसा के
मंदिर वहीँ पे बना ले, तीरथ उसे ही जान ले
फिर परम-प्रेम-ग्रन्थ पढ़ो, सहेजो, खर्चो, या-
चाह देख जान पा जियो, जैसी मर्जी तुम्हारी

 © Lata 
19-06-2017

Sunday, 18 June 2017

ओ रे जुलाहे !


साँचा अजूबा आने बाने कसे दौड़ते धागे 
कैसी कैसी रंग रंगीली चादरें बुनता है तू 
हरबार नए आकार गढ़ रंग भरता इसमे 
ओ रे जुलाहे, थकता नहीं कभी क्या तू ?

एकछत्र फैली चादर आस्मानी कभी हुई -
स्याह, टिमटिम तारे जिसपे टाँकता है तू 
तेरी ऊँगल की पोर में रहे बला का जादू 
जिसपे कायनात को थईया कराता है तू 

धन की , कर्म की , भाग्य की , जन्म की 
मजहब की, समाज की, रीतीरिवाजों की 
इसकी उसकी मेरी तेरी देह की देश की
दे के पहचान, सबको चादरें उढाता है तू  

भाव की भी बेशकीमती चादर तूने बनाई
लम्बाई चौड़ाई जिसकी क्या खूब निखारी  
अपनी चादर में संतुष्ट, आचरण सहज है  
कोशिश कसमस कृतिम, जता देता है तू 

'उत्ते पैर पसारिये जित्ती चादर होये' कहे 
कैसे कैसे इशारे में, समझाता जाता है तू 
उस 'एक' को इत्ते में, कैसे सहेजता है तू 
न मालूम कब से बुनावट में है जुलाहे तू 

अहं से जुगत से बुनी दोबारा तेरी चादर 
न जाने कौन रंग आकार उभर के आये
मैली चादर ओढ़े उपाय को इतुत भटकूं 
ज्यूँ की त्यूं सौंप दूँ, बिधि बोल जुलाहे तू 

कैसी कैसी रंगरंगीली चादरें बुनता है तू 
कैसे कैसे इशारे में समझाता जाता है तू 
न मालूम कबसे बुनावट में जुटा हुआ तू  
सच कहना जुलाहे, थकता नहीं  क्या तू 



13 :46 pm
© Lata 18-06-2017

Friday, 16 June 2017

न दिखाईये आस्मानी ख्वाब...............


न दिखाईये आस्मानी ख्वाब, आस्मां के 
के मैंने, जमीं पे अपना मुकाम किया है
ख्वाब से ख्वाबो को ख्वाबों में कैदकर-
यूँ जिंदगी को खूबसूरत अंजाम दिया है
न दिखाईये आस्मानी ख्वाब...............

नाजुक फूलो की खूबसूरती देख, आप
मिसाल ए इश्क़, रौनक ए गुल, कहे है 
खुद बाग़ीचे में कांटो संग जिन्हे आपने 
खिलते, सूखते, मिट्टी में मिलने दिया है
न दिखाईये आस्मानी ख्वाब...............

फूल को क्या कहिये, खुद से इश्क़ कर
रंग छिड़क के खुदकी खुशबु में मस्त है
इठला के डोलती पवन को सुगंध दिए है  
मौसम संग बदल के, फ़ना होने दिया है
न दिखाईये आस्मानी ख्वाब...............

जमीं से जुड़ के पलपल बदलते, इसके-
मिजाज को शिद्धत से महसूस किया है
क्यूं के , शूर ने जीत का ऐलान किया है
या कहें, इस जिंदगी को आसां किया है
न दिखाईये आस्मानी ख्वाब...............

8:30am 15-06-2017 © Lata 

Thursday, 1 June 2017

मुद्दतों बाद भीना सा ख्याल आया



for non-Hindi friends : This is sweet poetry, where writer felt to break all over the period of time created stone walls and move out in a fresh garden ... to take breath fresh ( in 1st and 2nd stanza ) In 3rd n 4rth after forgetting poet want to go in nature's Lap as lover, and in last stanza where desire are like a Gold Deer and body is feminine (full of emotions symbolic) wisdom is like awakened soul, who dissolves all fake desires under soul's wisdom, and that moment all fake moments also get disabled
(read and see this perspective)
I tried to give best translation ..

संक्षेप में : ये  कविता भाव की  उस मनःस्थति को संकेत  करती है , जिस क्षण सकारात्मकता  अपनी  खिड़की खोलती है और भीनी भीनी सुगंध से ध्यानी का  मन भर उठता है , हृदय पे छायी हुई  नकारात्मकता की झीनी चादर गायब होने लगती है , एक उल्लास के साथ एक  संकल्प  लिए हुए  ये कविता  अपने उदगार  इन शब्दों में  प्रकट करती है - 

मुद्दतों बाद भीना सा ख्याल आया ........

(after a long time  the  fragrant thought come up )

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मुद्दतों बाद भीना सा ख्याल आया ........
बहुत कुछ अपने लिए करना है अपने तरीके से जीना है !!
After a long time,  the  fragrant thought come up 
loads of things to  do for self  and live  as  my core 
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महकते फूलों जैसे कुछ गूंथने है .......
सूखते फूल की गंध जैसे कुछ पल, रिहा भी तो करना है !!

Sweet  smelled  flower need to weave
those moments getting smelled dry like a flower, need to do them free !!
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साफ़ आईने पे गर्द की पर्त छायी हुई 

आहिस्ता आहिस्ता मख़मली नर्मी से साफ़ करते जाना है !!
On the clear mirror, there is a thin layer of dust.
very softly slowly-slowly alike silken touch, need to wipe continues. 
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मुद्दतों बाद भीना सा ख्याल आया .........

(after a long time  the  fragrant thought come up )

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झरने वादियां मौसम के मिजाज ........
मेरी हसरतों की दुनियाँ तड़प के तेरे गले से लिपट जाना है !!

Lakes valleys and various moods of  climate 
O my world of core wishes abruptly run to embrace you 
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इस पल से जीने की इजाजत ले लूँ .......
रेत-ए-वख्त से मोहलत ले लूँ, इसतरह इसतरफ न आना है !!

Ask a permission from this moment to live.
the grant from slipping time like a sand, this way, this side  neither  to come 
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लम्हे, सुवर्णमृग से चौकड़ी लेते, तुझे -........
रघु तीर से जख्मी, सीता सुख में, 'हा सीते' कह मर जाना है !!
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Trice, takes gallop like a golden deer, you -
Wounded from the arrow of Raghu (Ram / conscious ), in the joy Of Seeta (body)  with saying-' Ha site ( last sound) and get to die. 
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मुद्दतों बाद भीना सा ख्याल आया ........


(after a long time  the  fragrant thought come up )

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©Lata 
31-05-2017

आशय :  *फूलों  का अर्थ  जीवन  के सुखद पलों  से लें , सूखते फूल माने जो वख्त बीत गया  जिसका कोई अस्तित्व अब नहीं   ऐसे पलो को रिहा कर देना ही अच्छा है ,

*साफ़ आईना  हमारे आत्मिक  भाव का प्रतीक है जो हम सब का है , समय की धूल  अगर छायी है , तो  अपने साथ नरमी बरतते हुए  उसे साफ़ करले ही अच्छा है , 

* प्रकृति  की गोद  में समां के  जो प्रसन्नता संवेदनशीलता आभासित  होती है उसे कहने को शब्द पर्याप्त नहीं , वो आनंद की स्थति है , जो किसी कारन दूर थी  अब  मन  प्रकति की गोद  में उसे पाना चाहता है , नजदीकी उदाहरण लें तो बिलकुल वैसे ही भवस्थ्ति जैसे किसी  प्रेमिका को  अपने प्रेमी की आलिंगन में सुख मिलता है  ( प्रकृति  का सनिध्य  इस प्रेमिका के उभरते सुखभाव से  भी बड़ी अनुभूति उसे प्रतीत होती है )  ,  जिसको " वो " कम से कम समय में अधिकतम अनुभव में लेना चाहता है  , क्यूंकि समय का रिसाव   बहती रेत सा जारी है , जिसका जिक्र आगे की लाईनो में है 

* पल से जीने की इजाजत माने  इस पल में जीना , और पल ही इजाजत देते है  आदमी  तो सिर्फ सकारात्म होसकता है , पलों के महत्त्व को समझना और उनसे ही प्रार्थना करना , वो अद्वितीय आनंद उपलब्ध कराएं, क्यूंकि इसी देह  से  और इसी परिस्थति में दोबारा  कौन आया है , यदि पुनर्जन्म या आना मान भी लें  तो जेवण नदी के जल जैसा है  , उसी जल में दोबारा हाथ कैसे धोयेंगे  बाह, धारा  में बहता जल तो बह गया , जिस पल हाथ उस जल में धोये  बस वो ही पल और वो ही जल  अपना है।  

*  अंतिम की दो पंक्ति में  सुवर्णमृग जो इंसानी अदम्य इक्छा का प्रतीक है , ऐसी ही अदम्य कभी न समाप्त होने वाली झिलमिलाती स्वर्ण इक्छा जो अपने ही गुणदोषों से लबालब भरी है ऐसी अनंत इक्छाओं को समेटे उन लम्हो को समर्पित है , जिसमे राम आत्मा / चेतना / देह के स्वामी / चैतन्य / स्वयं परमात्मा कीचड़ में  कमलवत  रहते  है और सीता  ऐसे चैतन्य की देह का प्रतीक ,  देह और इक्छा का  सुंदर संयोग है। ईश्वरांश राम (अर्थात आप और हम के अंदर का जीव ) चैतन्य है जो लीला में देह  के जीवन और उसकी  जिजीविषा को यथासंभव पूरा  करने  संकल्प लेने का प्रतीक है , जो यथासंभव - यथाशक्ति अपनी देह रुपी  सीता  की  इक्छा पूर्ति के लिए स्वर्ण मृग रुपी लम्हो को जीतने के प्रयास में घायल करते है , पर घायल होते ही वो अपना रूप बदल देते है  और उसका वास्तविक  राक्षस  रूप सामने आता है।  यहाँ तनिक सोचियेगा !  हमारे समक्ष हमारी इक्छाये भी ऐसी ही है , सही और गलत की चाशनी में लिपटी  मिलगई तो व्यर्थ नहीं मिली तो पागलपन , और यदि मिल भी गयी तो भी कैसे भी प्रभाव वाली हो सकती है, अब ये कह पाना कठिन है  की प्रभाव कैसा होगा।  इक्छाये  हमेशा मृग-मरीचिका सी  ही कही गयी है इनमे  आज तक भटक के किसी को  मंजिल मिलते तो नहीं देखा,  हाँ ! और अधिक की प्यास  और अधिक की लालसा जरूर जगती है।   पर इक्छा और देह का  तात्विक-संग-संजोग  है  इसलिए  ऐसी इक्छा मरते वख्त भी  देह के लिए ही लालायित रहती है फिर वो  भाव कोई भी हो शक्ति का या भक्ति का  , और देह भी  अज्ञानता में स्वर्ण जैसी मृगमरीचिका  इक्छाओं की तरफ आकर्षित , क्यूंकि देह की लालसा- पूर्ति तो इक्छाओं से ही है , और इच्छाओं  की  नीव  देह , इसीलिए  मरते मरते भी  इक्छा  देह का त्याग नहीं कर पाती " हा  सीते " इस सन्दर्भ में। किन्तु चेतना  यानि राम  ऐसी मायावी इक्छा के बहकावे में नहीं आते  इसलिए   रघु के तीर से माया का जख्मी होना / समाप्त होना ; तो निश्चित ही है।

** अभी भी अंतिम दो पंक्तियों  में इतना विस्तार  बाकि है जो कहूं तो अभी तो निबंध है  फिर शास्त्र  बन जायेगा (हास्य)  . कुछ प्रश्न  छोड़  रही हु आपके चिन्तन  केलिए - १-  मरीचि  ने रूप बदलने का ऐसा स्वांग  क्यों किया ! २- सीता  का आकर्षण सब जानते हुए भी  इतना  प्रबल क्यों था ! ३- राम स्वयं ईश्वर थे  जो सब रोक सकते थे  फिर भी  लीला क्यों की ! ५- लम्हे सुवर्ण  क्यों ! ६- देह सीता क्यों ! ७- राम  को  देह की आत्मा क्यों कहा ! ८- रावण  और मरीचि के बीच क्या और  क्यों  सहमति हुई , ९-  मरीचि को आखिर इस तरह मरना  क्यों स्वीकार हुआ। १०- मृग मरीचिका  का  इस मरीचि  के भाव से क्या सम्बन्ध ! ११- देह का और इक्छाओं का क्या गठबंधन (विवाह) !  १२ - लम्हे  झिलमिल करती मारीचिका  जैसे क्यों ! १३- हमारी आंतरिक वासनाओं के परिणाम से  बंधे लम्हे हमारे सामने ही आये , और अपनी इक्छानुसार  अच्छा या बुरा फल देके गए , वख्त जैसा भी था गुजर गया ,  चाहा हुआ मिल गया तो मिट्टी हो गया  और  नहीं मिला  तो  और प्यास बढ़ा गया , यही मरीचिका है क्या , यही लम्हे की मरीचिका , और यही सुवर्ण मृग  की मरीचिका  है क्या ? १४ - सीता  मात्र लालसा से ऊँगली  उठाना  और राम का सब जानते हुए भी  मृग के पीछे जाना ,  मरीचि का  राम का तीर लगने के बाद " हा ! सीते "  कहना और मर जाना , "  पुरे ग्रन्थ में ये घटना  तो कथारूप में बनी हुई  बहुत छोटी समझ आती है ,जो मात्र क्रमबद्ध घट गयी ,  किन्तु  इनके अर्थ , इनकी मंशा , इनके कारण , युगों के चक्र पे अत्यंत गंभीर है। स्मरण में  सिर्फ ग्रंथ  की कथा कथारूप में ही अनेक आलोचनाओं / व्याख्याओं के साथ संग्रहित हो गयी।  इतना सोचने के बाद,आपको आखिरी की दो पंक्ति का अर्थ अधिक साफ़  और अधिक स्पष्ट होगा।  

अंत में सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगी , कविता विषय-विस्तार नहीं है  भावइत्र है ,भीनी  मौलिक नैसर्गिक सुगंध है , मौलिक नैसर्गिक  इसलिए  क्यूंकि ये भाव नवजात तो नहीं पर अपने अनुभव की परिपक्वता के कारण अपने ही जन्मस्थल के बहुत करीब है , ( इस कहे पे गौर कीजीयेगा , क्यूंकि उच्चावस्था के ध्यान में ध्यानी की भी यही स्थति है ,)  जिसमे  कवी एक ऐसी  अनुभवजन्य मनःस्थति में  आता है जहाँ उन्ही अह्साहो के अनुभव के  भाव-छंद  बनते है ,  इन इत्र रूप  कहे भाव छंद को , जब दुर्लभ संयोग से कोई ह्रदय से आत्मसात करते है तो द्विगुणित  होकर  असर होता भी  है।  

शुभकामनाये !