( कथा काव्य )
मैं इससे भी पार हुआ
मैं उससे भी पार हुआ ,
सभी राहों से गुजर
सभी राहों के पार हुआ
अब खड़ा हुआ हूँ
नदी की इस उफनाती
शोर मचाती धार के ऊपर
अपना ही पुल बना के ,
( गूगल पे टाइप करो तो "पुल" को "पल" बना देते है , वैसे बात एक ही है , पल का पुल हो या पुल का पल )
तो ,
अब पुल बना के खड़ा हुआ हूँ
बीच धार के ऊपर ,
इसकी नित्यता पे मत जाना ,
अनित्य संसार में सब अनित्य है ,
दृढ़ता से अभी पैर जमा के
खड़ा हुआ हूँ ,
बुला रहा हूँ ,
उस पार का निमंत्रण दे रहा हूँ ,
पर मैं खड़ा हूँ बीच धार में
अपना पुल बना के ,
थपेड़े सहता हुआ ,
निमंत्रण देता हुआ ,
सैकड़ों आशीषों की वर्षा के बीच
उफनती इस धारा के बीच ,
कभी तुमने मजबूत पुल
टूट के बहते देखे है !
साथ वो सब भी बह जाते है
जो भी तिनके इस पुल पे है ,
प्रकर्ति के कार्य में ; मैं बाधा कैसे !
मैं भी बह जाऊंगा
जिस दिन ये पुल अपनी
अवधि पूरी करेगा।
उनको देख , कितना समझना
न समझना , अब तुम्हारी मर्जी..!
माना के पुनराव्रत्ति होगी ,
इस पार से उस पार जाने को
फिर पुल बनेगा कोई -
नूतन पुल,
फिर वो ही निमंत्रण सुनोगे
वो ही हाथ उठेंगे ,
प्रकर्ति प्रबल है
समय के विस्तार में
हमारा विस्तार नगण्य है-
फैलाव सिमित है ,
होंगे हम ; फिर हम न होंगे
होगे तुम ; पर तुम न होंगे ,
दृश्य रूप रस गंध स्पर्श सौंदर्य
और देह कब दोहराते है खुद को ,
उनको देख , कितना समझना
न समझना , अब तुम्हारी मर्जी..!
हाँ ! बाकि सब कुछ कुछ
और वक्त का विशाल चाक पे
घूमते कुछ तत्व यूँ ही रहेंगे,
निःशब्द , संगीतमय ,
सुगंधमय और गहन मौन
यूँ भी झिर्रियों से जो झांकता
स्वाभाविक है , मन आतुर है
दराज़ से रौशनी की किरण पा
दौड़ पड़ता है तुरंत ह्रदय
बंद दरवाजा खोलने को
कुछ-कुछ से सब-कुछ
समझना चाहता है
लालायित "कुछ" को पूर्ण पाने को
क्षुद्र रूप से और संक्षिप्त में पाते ही,
ये जिज्ञासा भी त्याग देती है
अनजानी उस जिज्ञासा को ,
सर्वदा के लिए !
उनको देख , कितना समझना
न समझना , अब तुम्हारी मर्जी..!
अपने से लड़ के नहीं
स्वीकार समझ आनंदित हो
मैं खड़ा हूँ , बीच धार में !
ऐसा ही पुल बना लेना
सब राहों से गुजर
नदी की मध्य धार पे
खड़े हो पैर जमा लेना
ऐसा ही ....
पुल बना लेना
दृढ़ता से खड़े हो
तो ; आवाज दे देना
फेंक देना अपने झोले को
इस उफनती गड़गड़ करती
शोर मचाती नदी की मध्य धार में
और पार हो जाना
क्योंकि पुल सामायिक है
टिकते नहीं बह जाते है
अपने साथ सब बहा ले जाते है
अमृत की वर्षा थमती नहीं
धार उफनती , रूकती नहीं
अतिवेग, अतिप्रबल, अतिप्रचंड
अतिसंगीतमय, सुंदर मनमोहक
लुभावनी भंवर बनाती धार बहती
मचलती काटती रौद्र रुद्रप्रिया
किनारो को समेटती अपने साथ
उनको देख , कितना समझना
न समझना , अब तुम्हारी मर्जी..!
सब रहेंगे कुछ वख्त तक यूँ ही
बस न हम होंगे न तुम होंगे न पुल होंगे
होंगे तो कुछ संगृहीत ग्रन्थों में पुल के पल
कुछ चित्र , कुछ सन्देश
जो पता नहीं विस्मृत ह्रदय कैसे समझे
बुद्धि कैसे समक्ष रखेगी !
उन राहों को , उन आवाह्नो को
उन गीत के उन्ही बोलो को
तुम कैसे सुन पाओगे
उफ्फ्फ ! जब अभी नहीं .... !
तो कभी नहीं .....................!
और मैं अभी क्या कहता हूँ
तुम क्या समझते हो
अपना पूल (पल) बनाओ
एक इस पे यदि
सभी खड़े हो जाओगे
बेचारा वैसे ही वख्ती है
अभी टूट चरमरा के बह जायेगा
स्वनिर्मित स्वविकसित सु-सृजनकर्ता
पार हुआ ही हूँ ,पर तुम !
सब इसके मध्य भी नहीं अभी
इसकी तेज धार में बह जाओगे
ब्रिज की संरचना !अभी विचार में
प्रलोभन पार धुंध का , झिर्री से झांकता
निश्चित ; हो नहीं पास भी - उसपार के ,
मध्य भी सुरक्षित नहीं उफनती धार से
जान लो! यदि पुल तक पहुंचे भी नहीं
दो पर्वत के मध्य ढलान पे बहती
काल के आगोश में बांधती
लीलती , कभी कलकल ,
कभी घड़घड़ करती
सदियों से बहती यूँ ही ,
समेटती हम सब को
ये पवित्र गंगधार है
उनको देख कितना समझना
न समझना , अब तुम्हारी मर्जी..!
मैं उससे भी पार हुआ ,
सभी राहों से गुजर
सभी राहों के पार हुआ
नदी की इस उफनाती
शोर मचाती धार के ऊपर
अपना ही पुल बना के ,
बीच धार के ऊपर ,
इसकी नित्यता पे मत जाना ,
अनित्य संसार में सब अनित्य है ,
दृढ़ता से अभी पैर जमा के
खड़ा हुआ हूँ ,
बुला रहा हूँ ,
उस पार का निमंत्रण दे रहा हूँ ,
पर मैं खड़ा हूँ बीच धार में
अपना पुल बना के ,
निमंत्रण देता हुआ ,
सैकड़ों आशीषों की वर्षा के बीच
उफनती इस धारा के बीच ,
कभी तुमने मजबूत पुल
टूट के बहते देखे है !
साथ वो सब भी बह जाते है
जो भी तिनके इस पुल पे है ,
प्रकर्ति के कार्य में ; मैं बाधा कैसे !
मैं भी बह जाऊंगा
जिस दिन ये पुल अपनी
अवधि पूरी करेगा।
उनको देख , कितना समझना
न समझना , अब तुम्हारी मर्जी..!
माना के पुनराव्रत्ति होगी ,
इस पार से उस पार जाने को
फिर पुल बनेगा कोई -
नूतन पुल,
फिर वो ही निमंत्रण सुनोगे
वो ही हाथ उठेंगे ,
प्रकर्ति प्रबल है
समय के विस्तार में
हमारा विस्तार नगण्य है-
फैलाव सिमित है ,
होंगे हम ; फिर हम न होंगे
होगे तुम ; पर तुम न होंगे ,
दृश्य रूप रस गंध स्पर्श सौंदर्य
और देह कब दोहराते है खुद को ,
उनको देख , कितना समझनान समझना , अब तुम्हारी मर्जी..!
घूमते कुछ तत्व यूँ ही रहेंगे,
निःशब्द , संगीतमय ,
सुगंधमय और गहन मौन
यूँ भी झिर्रियों से जो झांकता
स्वाभाविक है , मन आतुर है
दराज़ से रौशनी की किरण पा
दौड़ पड़ता है तुरंत ह्रदय
बंद दरवाजा खोलने को
कुछ-कुछ से सब-कुछ
समझना चाहता है
लालायित "कुछ" को पूर्ण पाने को
क्षुद्र रूप से और संक्षिप्त में पाते ही,
ये जिज्ञासा भी त्याग देती है
अनजानी उस जिज्ञासा को ,
सर्वदा के लिए !
उनको देख , कितना समझना
न समझना , अब तुम्हारी मर्जी..!
स्वीकार समझ आनंदित हो
मैं खड़ा हूँ , बीच धार में !
ऐसा ही पुल बना लेना
सब राहों से गुजर
नदी की मध्य धार पे
खड़े हो पैर जमा लेना
ऐसा ही ....
पुल बना लेना
दृढ़ता से खड़े हो
तो ; आवाज दे देना
फेंक देना अपने झोले को
इस उफनती गड़गड़ करती
शोर मचाती नदी की मध्य धार में
और पार हो जाना
क्योंकि पुल सामायिक है
टिकते नहीं बह जाते है
अपने साथ सब बहा ले जाते है
अमृत की वर्षा थमती नहीं
धार उफनती , रूकती नहीं
अतिवेग, अतिप्रबल, अतिप्रचंड
अतिसंगीतमय, सुंदर मनमोहक
लुभावनी भंवर बनाती धार बहती
मचलती काटती रौद्र रुद्रप्रिया
किनारो को समेटती अपने साथ
उनको देख , कितना समझना
न समझना , अब तुम्हारी मर्जी..!
बस न हम होंगे न तुम होंगे न पुल होंगे
होंगे तो कुछ संगृहीत ग्रन्थों में पुल के पल
कुछ चित्र , कुछ सन्देश
जो पता नहीं विस्मृत ह्रदय कैसे समझे
बुद्धि कैसे समक्ष रखेगी !
उन राहों को , उन आवाह्नो को
उन गीत के उन्ही बोलो को
तुम कैसे सुन पाओगे
उफ्फ्फ ! जब अभी नहीं .... !
तो कभी नहीं .....................!
और मैं अभी क्या कहता हूँ
तुम क्या समझते हो
अपना पूल (पल) बनाओ
एक इस पे यदि
सभी खड़े हो जाओगे
बेचारा वैसे ही वख्ती है
अभी टूट चरमरा के बह जायेगा
स्वनिर्मित स्वविकसित सु-सृजनकर्ता
पार हुआ ही हूँ ,पर तुम !
सब इसके मध्य भी नहीं अभी
इसकी तेज धार में बह जाओगे
ब्रिज की संरचना !अभी विचार में
प्रलोभन पार धुंध का , झिर्री से झांकता
निश्चित ; हो नहीं पास भी - उसपार के ,
मध्य भी सुरक्षित नहीं उफनती धार से
जान लो! यदि पुल तक पहुंचे भी नहीं
दो पर्वत के मध्य ढलान पे बहती
काल के आगोश में बांधती
लीलती , कभी कलकल ,
कभी घड़घड़ करती
सदियों से बहती यूँ ही ,
समेटती हम सब को
ये पवित्र गंगधार है
उनको देख कितना समझना
न समझना , अब तुम्हारी मर्जी..!
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