Wednesday, 23 March 2016

" बेकरार दिल तू गाए जा....."





दुनियाँ को बदलने की अजब रवायत है 

कबतक ! 
किसलिए ! 

बुद्धिजीवी ; ये कवायत है ?
कुछ सच वो कह के चले गए 
कुछ तुम्हारे कहने के लिए छोड़ गए
कुछ वे कह कह के चले गए है
कुछ कहने समझने के लिए छोड़ गए है 

कुछ है जो अभी भी अथक कहे जा रहे है
कुछ कह कह के जमुहाए जा रहे है
कुछ सुन सुन के उबासी लिए जा रहे है
सब कह कह सुन सुन के थके जा रहे है
नयी पीढ़ी को पुरानी परम्पराएं दिए जा रहे है!!

यूँ ही ... जीने का मकसद ... वो ...दिए जा रहे है
यूँ ही..... वे..... मकसद ... जीने को लिए जा रहे है 

धर्मान्धता की हद से हर दिन  बिन सोचे समझे  ,
सैकड़ों बेरोजगार- भक्त  अंधराहों से गुजरे जा  रहे है
अपनी ही बनाई मान्यताओं की खातिर वक़्ता श्रोता
गहन अर्थी द्वित्व अपना ही अंतरनिहित मौनपक्ष समेटे
इक सदी से अपनी ही धुन में चले जा रहे है ..
गीत मिलन के गाये और गवाए जा रहे है
रुके रुके से कदम रुक के बार बार चले
करार ले / दे के , तेरे दर से , बेक़रार / करार हो के चले
बस यूँ  ही दिल मिल के गाते रहें और सजते रहें  वीराने !!

अलमस्त फ़क़ीर जो  इक अकेला काफी ,
मगन मस्त गुनगुनाये जा रहे हैं ...... 
 - " बेकरार दिल तू गाए जा....."
" बस गाये जा , गुनगुनाए  जा "

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