Sunday, 2 September 2018

हाँ तो! उसके मुस्कराने का अर्थ समझ आया के नहीं !



शख्सियत द्वित्व की, छलांग अद्वैत की 
वे कहते जावे हैं - 'हैरत में हूँ निःशब्द हूँ क्या कहूं !'
सयाने जानते हैं सूचना में है सो कहने से पहले बूझते है 
ऊर्जावान तत्व प्रवाहशील  
आत्मतत्व है जल्वत, सो कहते जावे हैं -
जीवनदाता पानी रे पानी तेरो रंग कैसा रे! 
जामे मिल जावे लगे उसई जैसा रे...।
बिलकुल शक्तिपुंज जैसा रे 
और कहे हैं ! हरी बोल ! 

अद्वैत से जब जन्मे और द्वित में आये तो 
देह अलग अलग मति अलग अलग 
द्वित्व कहें तो एक की नजर में सामने वाला 
एक पक्ष यानी एक समूह 
ऐसे में देह समूह तो देह प्रथम हुई 
प्रथम बोले  तो प्राथमिकता 
मानव समूह हुआ तो मानव ही प्रथम प्राथमिक 
देश तो देश प्रथम ,  धर्म तो धर्म प्रथम 
समूह जब जैसा बना उसी का गान सुनाई देवेगा
अपने ही समूह की आवाज और धड़कन 
उसई  की पूजा  उसई  के संस्कार 
दिखाई देवे, कहाई, और सुनाई देवे है ....।

यही राजनीती में देखा यही धर्मनीति में 
समस्या खड़ी दल-समूह बदलते ही 
जैसे दिखना सुनना कहना सब बंद.....
द्वित अजूबा नहीं निहायत प्राकृतिक होवे है ....
परदेसियों की बोली भाषा होव है ....पर 
परदेस की आवाज ही कहाँ सुनाई देवे है ... ? 
सुन भी लें तो , समझ न आवे है ! 
सहजता खोयी गई  स्वीकृति के आभाव में 
पूरी की पूरी जन्मी घटनाये ही , मानोअजूबा लागे है ....। 

ऐसे समूह बदलते ही, समस्या खड़ी होवे है 
अगले का कछु कहा अब सुनाई न देवे है ...
दिखाई न देवे .....छूना तो नामुमकिन भया .....
द्वित्व में ये इन्द्रियां भी अपने ही समूह में काम करे हैं 
आप्रेसन करवा  देखा परदेसी को गैर-एलिमेंट जान 
मुई ये देह भी त्याग देवे है ...

ऐसे में इसी द्वित्व के साथ मजबूर हो 
एक भक्त ने अपने भगवान् को ऐसा अनकहा कहा
एक प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को बेबूझ ही कह डाला 
तो ; प्रेमिका ने अपने प्रेमी को कुछ ऐसन कहा
सालों साथ रह लगा के सच्ची में ! 
सम्बन्ध-जगत .. द्वित्व संग बेबूझ होवे है ....। 

ऐसे में , समूचे मृतजगत वासियों ने 
पूरे अमृत-जगत को ही बेबूझ कहा, 
और भी कहा-
-'जितना भी कहता जाता हूँ तुम अनकहे ही रहते हो '
तो; आगे सुनें , ऐसे में  द्वित्व जगत में 
आत्मा को भी हम हिलते डुलते प्राणी 
महामूर्ख नजर आये जब आत्मा को महामूर्ख नजर आये तो 
परमात्मा .....! हाँ अब आप कल्पना कर सके हैं ! 
द्वित्व में अद्वैती महाधामवासी हमको कैसे देखे है ....।

हाँ तो! उसके मुस्कराने का अर्थ समझ आया के नहीं !

Saturday, 1 September 2018

मैं एक आत्मा हूँ : The Soul एक परिचय (poetical Intro)






मैं एक आत्मा हूँ
देह! सुन्दर व्यवस्था, मेरे लिए
मेरे हाथ में लेखनी प्रारब्ध की
स्याही भरी है इसमें भाग्य की

मैं एक आत्मा हूँ
कोरा कागज है, इसके हाथ में
प्रारब्धलेखनी से निर्देशित लेख
भाग्यस्याही लिखती बनते कर्म

मैं एक आत्मा हूँ
सुविधा है मुझे थामी लेखनी से
क्या लिखू जो स्याही बन उभरे
मेरे कोरे कागज को पूरा रंग दे

मैं एक आत्मा हूँ
चेतना मेरी ही समझ का हिस्सा
जो मुझे शक्ति रूप मिला हुआ
चाहूँ जब, लेखनी को विश्राम दूँ

मैं एक आत्मा हूँ
समझती हूँ लेखनी के रुकते ही
रुक जाएगी फैलती भाग्यस्याही
और उभरे अक्षर कोरे कागज पे

मैं एक आत्मा हूँ
मेरी शक्ति जिससे प्रारब्ध हारा
भाग्यसहमा कर्मचाक ज्यूँ थमा
पाया कागज कोरा का कोरा है

_()_


Friday, 18 May 2018

A North Indian Rural Marriage Folk - कनउजी कनउजी जनि करो बाबा ...

उत्तर भारतीय विवाह लोक गीत

A North Indian  Rural  Marriage Folk   




गीत 

कनउजी कनउजी जनि करो बाबा , तो कनउजी हैं बड़ी दूर 
अरे इ कनवाजिया  दहेज़ बड़ो मांगे 
तो तेरे बूते दियो नहीं जाए
 *****

कहाँ पइओ बाबा मोरे अनगढ़ सोनवा  
तो कहाँ पयियो लहर पटोर , कहाँ पईयो बाबा मोरे  सोने की चिरईया 
तो इ कनवाजिया को मोल
 *****

बाबा कहते है -
सोनरा घरे बेटी अनगढ़ सोनवा तो बज्जा के लहर पटोर 
ओ तुम तो बेटी मेरी सोने की चिरईया
तौ  ई  कनवाजिया  को मोल
 *****

अब  आगे बेटी मन में सोचती है -

माया ने दीन्हो है  अनगढ़ सोनवा तो बाबा ने लहर पटोर 
भईया  ने दिनों है चढान को घोडिला 
तो भाभी ने ढोली भरे पान
*****

माया का सोना जनम भर पहिनब, फटी जाईये लहर पटोर 
भईया का घोडीला मै सहर घुमाईहों, 
तो सड़ी जाईये ढोली भरे पान
*****




आगे और सोचती है  अपनी भावनाओं को समझती है , विदा के समय अंतिम पंक्तियों में बहुत मार्मिक और भावुक भाव है -


विवाह संपन्न हो गया अब  विदा की बेला है :


माया  के रोये से छतिया फटत है , तो बाबा  के रोये सागर ताल
और भइआ  के रोये से पटुका  भीगत है
तो भाभी खड़ी मुसिकाएँ
 *****

मां  और बाबा  , भइआ  के  साथ में भाभी भी  इस भावभीनी  विदा की बेला पे क्या सोचती है -

माया कहें बेटी नित उठी आयो  तो बाबा कहे  छठे मॉस 

औ भईया कहें बहिनी काम औ काजे 

तो भाभी कहें काह काम
******

The End  of  folks 

कनउजी कनउजी जनि करो बाबा , तो कनउजी हैं बड़ी दूर 
अरे इ कनवाजिया  दहेज़ बड़ो मांगे 
तो तेरे बूते दियो नहीं जाए 

सन्दर्भ-

त्तरभारत में दो मुख्य ब्राह्मण समुदाय कान्यकुब्ज ( गंगा नदी के पार बसने वाले )  और सर्यूपारिणी (सरयू नदी  के पार बसने वाले )  इन दो मे से भी ये गीत खास कर कान्यकुब्ज समुदाय में विवाह समारोह में महिलाओं की ढोलक मंजीरे के साथ खासा प्रचलित है 

References - Two of the main Brahmin communities Kanyakub (across the river Ganges) and Sarayuparini (settling across the Saryu river) in North India, among these two especially in the Kanyukub community, this song is very popular with the dholak Manjira In marriages

लोकगीतों की खूबी है की वो समुदाय की अच्छाईयां और बुराईयां  गीत में गा के कहते हैं , सो इसमें भी यही है , विवाह योग्य  एक बेटी अपने पिता से पूछती है  कई सवाल , दहेज़ से सम्बंधित 

It is the fame of the folk songs that they are called in the songs of goodness and evil of the society through the song, so this is the same in this, a marriageable daughter  asks her father, many questions, related to dowry and  worried how her father  arranged all 

 बाद के  गीत बोलों में वो अपने भाव प्रकट करती है  सम्बन्धो की वास्तविकता को लेके , मां का प्रेम कितना पवित्र है उसके लिए , कितना शुद्ध है  पर पिता उससे  थोड़ा कम है  , मां  की निश्चलता के आगे पिता की एक डिग्री  फीकी है  और भाई की और कम  जबकि भाभी की शून्य,  जो उनकी भावनाओ में उनकी सोच में  उनके उपहारों के चुनाव में  दिखता भी  है 

In the subsequent song lyrics, he expresses his feelings, taking the reality of the relationship, for how much the love of the mother is pure, how pure it is, but the father is little less than that, a degree of a father is faded and the brother's less  from her father and brother's wife have  zero-effection  so all reflected  in their  emotional dealings and wishes 

स गीत में  परायी हुई नहीं  पर होने जा रही बेटी की संवेदनशीलता  बहुत सुन्दर ढंग से उभरी है , जहाँ उसे पल पल  लग रहा है  की इस विवाह की रस्मअदायगी के बाद वो विदा कर दी जाएगी।  और फिर... 


In The song, She is in her parental home, but the sensitivity of the daughter going to be very beautiful has emerged, where she is feeling the moment that the marriage ceremony will be done after she handed over to In-laws and then...

उसको अपनी मां की भावना भी छू रही है  जहाँ उसे लग रहा की मां सब जानती है  लोकाचार के बारे में  और इसीलिए वो उदास भी है , वो चाहती हैं की मैं उनसे रोज मिलने आऊं ।  पर मेरे पिता चाहते है  छह माह से पहले नहीं आना चाहिए , और मेरे  भाई तो कहते है  काम काज हो तो आ जाना  बार बार क्या आना , ....भाभी शायद  इतना भी नहीं चाहती  इसलिए वो सिर्फ मुस्करा के रह जा रही है .....

She is also feeling, the intuitive-feeling of her own mind, where her mother feels the reality of everything, her mother knows about ethics of society and that is why she is also very sad, She wants me to come visit her every day. But my father does not want to come before of six months, and my brother says that if I can come in marriages or festivals then will be good and Brother's wife wants even then no need to come.. better to stay in husband's home, so she is just giving Smiles.

enjoy !!

प्रणाम 

Monday, 7 May 2018

विरोधाभास - मानो या न मानो



[महाध्यानी वो ज्ञानीयोगी ये और हमध्यानी ]


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शिव के जब दो नेत्र खुले है जब तीसरा कहाँ खुला होता है
तीसरा नेत्र खुलते ही, वे दो स्वतः महाध्यानी के बंद होते है



ये जागृत आधे पे ठहर गया आधेआधे में सौदा पक्का हुआ
दो नेत्र ज्यूँ आधे बंद हुए, तीसरा उतना ही स्वतः खुल गया


संकेत ही संकेत, मुझ से शिवा तक, आधे खुले पूरे ढके भी
ज्ञानीयोगी अर्धबंद अर्धखोल पाते, हम मूँद करही खोलते है


जानो जब आँखे बंद किये हैं तब अपनी आँखे खोले होते हैं
जब हम मौन में होते है तभी हम, असल बात करते होते है


धूनी लगा बैठ गए हों, तब ही हम लम्बी यात्रा शुरू करते है 
वधु लम्बे-घूँघट में ! तो उसका अनावरण वहीँ शुरू होता है


मृतदेह मुँह तक ढांप एक श्वेतवस्त्र पहनाने की रस्म यही है
ये अध्याय समाप्त हुआ अगला जीवन अध्याय शुरू होता है 

ॐ प्रणाम 

© लता  
१२: ४० दोपहर 
७ / ५ / २०१८ 

Friday, 27 April 2018

फाल्गुन से वे सात रंग




हम रंग छुड़ाते ही रहे 
रंग घेरते, रंगते ही रहे 
ठान ली थी हमने अब 


दूध दूध ओ पानी पानी 
अलग अलग हो रहेगा 
देवदानव के सोपान में


श्यामल या के श्वेत रंग 
कड़ी के अंतिम रंग थे 
सोचा! युति असंभव हैं 
हाकिम एकही देह का

ठाना था ! स्व-भाव की 
गहराई से तराश हीरा 
खोज, बाहर ले आएंगे 


हम कोशिश करते रहे 
सातों रंग हमें घेरते रहे 


चित्रकार का ब्रश, हम 
नितनए रंग में रंगते रहे
आजभी समझसे ये परे 
मूल मेंश्वेत! या श्याम हैं

या सब रंग की उपज हैं 
जो रंग चाहे हावी हो ले 
औ हम बेबस लाचार हैं 


फाल्गुन वे संग खेल रहे 
हम थे खुद से बचते रहे 


सोचते ही थे गुमसुम के
बयार कहाँ से बह चली 
खिले पराग से सुर्ख रंग
  खुशबु... फैलाते...

        झर गए ...

कहो प्रिय ! इसमें से तुम्हे क्या दे दूँ



कथा कुछ भी हो, ये पटकथा मेरी है 
दवात-स्याही लेख-लेखनी ये ऊँगली 
Any type of Story but script is mine 
Bottle-Ink writeup-pen these fingers

जिंदगी कैसी भी है, सुनिश्चित मेरी है 
मिलते परिणाम जो हैं सब मेरे ही हैं 
however life it is , sure it is mine
whatever results are only mine

प्रेम की फलती फूलती पौध, मेरी है 
जन्म मेरा मृत्यु मेरी साँसें मेरी ही है 
the tender plant of love is mine
birth mine death mine breaths are mine

कहो प्रिय! इसमें से तुम्हे क्या दे दूँ 
तुम मुझे वो दे दो, जो भी तुम्हारा है
Tell me, Dear, what I can give you from these
and you may give me whatever is yours

Monday, 26 March 2018

स्त्री-पुरु







स्त्री; नाम पर्याय है बंधन का 
स्त्री, स्वयं के लिए भी बंध है 
आकर्षण भाव देह बंध है यहाँ पुरु अचेतन स्त्री निःसहय है


पुरु न बंधता न बांधता, स्त्री!
स्वतंत्रता उस्के मूलगुण में है 
चूंके मामला प्रकर्ति पे रुका, दो सुजान चेतन बेबस हुए हैं


कुंडली मारे जो इक्छाओं पे 
अड़चन बीजरूप वहीँ बैठी 
पुरुष अंसख्यगामी संभव है स्त्री धुरी का दूसरा पर्याय है


पुरुष बेहतर कहूं के उलझी-
मकड़ी अपने जाल में फंसी
भटक चाहे कितने जाल बुने नवजाल नवाग्रह बंधक हुआ


इक स्त्री देह इक पुरुष देह 
स्त्री-ह्रदय इक पुरुषह्रदय है 
इक प्रेम में बंध के मुक्त हुई इक प्रेमबंधमुक्त ही मुक्त है


पूर्णस्त्रीसंग्राम स्त्री धुरी में है 
पुरु का जग्रतपुरु विपरीत है
यशो कैसे रोक सकेगी उसे जो सम्मोहनचक्र से पार हुआ


ये माया चक्र जो भेद सका 
वो पार हुआ माया जगत से 
पर आकर्षण मोहनी बने है, सोचने ही कहाँ देते है तुझे?


भावप्रेम मोहकर्म बंध ही है 
सं+बंध गृहबंध केंद्र सबका 
कर्म कर्त्तव्य भोग जान मान नवज्ञानी एकबंध में तुष्ट हुआ


योग नहीं, सन्यास नहीं अब 
राग न कोई, द्वेष ही है अब 
इस जन्म में उत्तमज्ञानी पुरु मक्कड़जाल से ही मुक्त हुआ


© Lata-27/03/2018-08:05am




Note: बात सही या गलत नहीं , वो नैतिकता है , क्या होना चाहिए ये सामाजिकता है पर नैसर्गिक धारा अपने गुणों को लिए संग बहती रहती है , ये प्राकतिक सामंजस्य है , जो कहता है नैतिकता और सामाजिकता के बीच मेरा अस्तित्व गहरा है , मैं मूल गुणधर्म हूँ। 

अपनी आज की दृष्टि से और आज की समझ से परखेंगे तो अलग ही दृश्य आएगा  जो अस्पष्ट और धुंधला भी है।  कुछ भी प्रकर्ति में समझना और जानना तो जरुरी है  अपनी दृष्टि का विकास। 

जगत में देह के 
बंटवारे के साथ ही एक पुरुष एक स्त्री में भाव में भी बंटा हुआ हूँ। ये कहता है मैं सभी सम्बन्ध से ऊपर हूँ क्यूंकि मैं मौलिक हूँ , किन्तु मैं मौलिक हूँ शुद्ध हूँ इसलिए सर्वव्यापी हूँ सभी देह में भौतिक देह से अलग मेरा वर्चस्व है , मेरा प्रभाव है। 

अनुपात में ; मानव के व्यव्हार में प्रकट हूँ , प्राकट्य में देह से न मैं स्त्री हूँ न पुरुष, सिर्फ स्त्री या पुरुष भाव हूँ। इसलिए देह से परे हूँ। फिर भी देहबन्ध हूँ।

बस अंतर् इतना ही है बन्धमुक्त-मुक्त पुरुष-भाव है जो प्रकर्ति से देह से इसका कोई सम्बन्ध नहीं और बन्धयुक्त-मुक्त भाव स्त्री का। अलग अलग देह में अलग अलग तरीके से प्रकट।

ध्यान देने वाली बात है,  की सम्बन्ध हमारे है , नैतिकता हमारी है , सामाजिकता हमारी है , और कॉकटेल  भी हमारी ही  बनायीं है , इसलिए कुछ नियम हरेक के लिए है ही।  यहाँ सम्बन्ध कोई भी , सामाजिकता कोई भी हो कहीं की हो ( विश्व या ब्रह्माण्ड , चर या अचर ), जो बने बनाये नियम से मुक्त है वो है एपुरुष भाव और एक स्त्री भाव , अब जो जानते है वो सहज आत्मसात करते है , वर्ना संघर्ष करते है। 
इसलिए किसी भी सम्बन्ध में पुरुष भाव स्वतंत्रता ही चाहता है और स्त्री भाव बंधन में संतुष्ट । ( किसी भी देह का स्वामी कोई भी हो सकता है ) मजे की बात ये इनमे भी अनुपात है अब प्रकृति एक जैसी दिखे पर है नहीं।