माँ के विकास से सम्बंधित कविता की पंक्तियाँ अपने जीवन के अंतिम वर्षों में मां बहुत शांत हो गई थीं ..पढ़ते समय मेरे मन में कुछ भाव आये , उस स्त्री के सम्बन्ध में , उस स्त्री के बालिका से प्रौढ़ा हुई उम्र से बंधे मनोविकास के सम्बन्ध में , ये विकास के चरण है , संभवतः अनुभवों की चढान है इस चढान में अंतिम पायदान या अंतिम कदम कौन सा होगा , मुश्किल है कहना , पर अपने प्रोढ़ होते अनुभवों में इस प्रकार का ढलान एक स्त्री की परिपक्वता उम्र के अंतिमचरन की ओर रुखसत जरूर इशारा है इसी में इसी भाव के साथ कूच कर जाना , पीछे आते अनेकों के लिए इशारा भी -
नहीं कह सकते के
अंतिम वर्ष कौन से होते है
सुलभ बाल्यअठखेली तो थी
समय पे युवा उन्मांद भी था
नारी के स्वाभिमान की स्वामिनी थी
मात् वात्सल्य का गर्व भी था
ये पल जो वख्ती भराव ला रहे थे
स्त्री कर्त्तव्य और प्रेम से लबालब
स्रोत से निकली नदी की तरह चंचल
आगे खड़े इंतजार में वख्ती कटान थे
जो जीवन के जल को सूखाने में सक्षम थे
और इस तरह जल्वत चंचला स्वाभिमानी
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में
शांत हुई मां थी
अब वो ही......
वृद्ध हो चली
समय में पहले सी आंधी सी रफ़्तार नहीं
वरन धीमा मंथर गति का बहाव है
लगता है अंतिम स्थति को बढ़ती, अब!
उम्र के बहाव को समझती है
जानती है के उसके पास कुछ भी नहीं रुकेगा
शायद कुछ यूँ ही सोचती हुई...
(आगे ग्राह्य करें कव्यत्री के भाव )
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में
मां बहुत शांत हो गई थीं ..
कोई कुछ कहता तो चुपचाप सुन लेतीं
न कोई जिरह न विवाद
न ही कोई समझाइश..
उन्होंने अपनी बात रखनी छोड़ दी थी
अपनी बात करनी छोड़ दी थी..
अपने दुखों से अलिप्त हो गईं थीं
मानो अपना अस्तित्व ओझल कर रही हों
अधिकार कर्तव्य सब त्याज रही हों ..
वे घर में ही वैरागी हो गईं थीं
उनका ऐसा निर्लिप्त हो जाना
कभी कभी भयभीत करता था
अपनी सत्ता त्याग रहीं थीं
अपने दायित्व छोड़ रही थीं
दुख सुख आस निराश सब विगलित कर रही थीं
मन विसर्जित कर रही थीं
और कुछ ही वर्षों में उन्होंने तन भी विसर्जित कर दिया
और तभी मैंने जाना
कि स्त्री का क्रोध रोष
अधिकार दायित्व
प्रेम वात्सल्य
यही उसकी जिजीविषा हैं
इन्हें तज कर वो पहले मन से विमुख होती है
फिर आहिस्ते आहिस्ते अपनी परछाईं से विलग होती है ...
(NidhiSaxena 08/07/19: 12:17am)
नहीं कह सकते के
अंतिम वर्ष कौन से होते है
सुलभ बाल्यअठखेली तो थी
समय पे युवा उन्मांद भी था
नारी के स्वाभिमान की स्वामिनी थी
मात् वात्सल्य का गर्व भी था
ये पल जो वख्ती भराव ला रहे थे
स्त्री कर्त्तव्य और प्रेम से लबालब
स्रोत से निकली नदी की तरह चंचल
आगे खड़े इंतजार में वख्ती कटान थे
जो जीवन के जल को सूखाने में सक्षम थे
और इस तरह जल्वत चंचला स्वाभिमानी
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में
शांत हुई मां थी
अब वो ही......
वृद्ध हो चली
समय में पहले सी आंधी सी रफ़्तार नहीं
वरन धीमा मंथर गति का बहाव है
लगता है अंतिम स्थति को बढ़ती, अब!
उम्र के बहाव को समझती है
जानती है के उसके पास कुछ भी नहीं रुकेगा
शायद कुछ यूँ ही सोचती हुई...
(आगे ग्राह्य करें कव्यत्री के भाव )
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में
मां बहुत शांत हो गई थीं ..
कोई कुछ कहता तो चुपचाप सुन लेतीं
न कोई जिरह न विवाद
न ही कोई समझाइश..
उन्होंने अपनी बात रखनी छोड़ दी थी
अपनी बात करनी छोड़ दी थी..
अपने दुखों से अलिप्त हो गईं थीं
मानो अपना अस्तित्व ओझल कर रही हों
अधिकार कर्तव्य सब त्याज रही हों ..
वे घर में ही वैरागी हो गईं थीं
उनका ऐसा निर्लिप्त हो जाना
कभी कभी भयभीत करता था
अपनी सत्ता त्याग रहीं थीं
अपने दायित्व छोड़ रही थीं
दुख सुख आस निराश सब विगलित कर रही थीं
मन विसर्जित कर रही थीं
और कुछ ही वर्षों में उन्होंने तन भी विसर्जित कर दिया
और तभी मैंने जाना
कि स्त्री का क्रोध रोष
अधिकार दायित्व
प्रेम वात्सल्य
यही उसकी जिजीविषा हैं
इन्हें तज कर वो पहले मन से विमुख होती है
फिर आहिस्ते आहिस्ते अपनी परछाईं से विलग होती है ...
(NidhiSaxena 08/07/19: 12:17am)
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