भाग्य से कर्म से मैं फ़क़ीर हूँ
मेरा नया पता -
इधर ... डिस्ट्रिक्ट
हिम्मत ... नगर
और मैं ... प्रवासी
जब मैं इस धरती के टुकड़े पे उतरा
वो था हिम्मत का नगर
उसे अपने झोले में डाल मैं थोड़ा ही आगे चला
के मिला इधर जिले का इशारा
उस इशारे को अपने झोले में डाल आगे चला
तो मिली एक झोपडी जिसमे दिया जल रहा था
उस वीरान सी झोपडी में
मैंने खाली सी खूंटी पे अपना झोला टांग दिया
और जुट गया उसकी सफाई में
उस झोपडी में चौका बर्तन जुटा सश्रम
भंडारा कर मैंने भोजन पकाया
एकमुखी स्थान में निद्राकक्ष बनाया ,
देवस्थान में पूजन-ध्यान-योग किया
आत्मा को उससे मिलाने की अथक चेष्टा
सोना रोना छटपटाना सब कुछ शामिल था
पर सबसे बड़ी मुश्किल आयी
खूंटी पे अटके झोले को दोबारा
अपने कंधे पे डाल खुली झोपडी को
वैसे ही छोड़ के चल पडना, जैसे पायी थी।
जगह जगह खाने बैठने के निशान बिखरे पड़े थे।
और मैं फ़क़ीर सफाई कर कर के थक चूका था
अचम्भा देख ..., अचरज से भरा ..., मैं
हतप्रभ ! स्थानदेव को प्रणाम कर