Thursday, 7 January 2016

शाश्वत गवाह



सोचती हूँ ! तुम न होते तो 
भाव को जमीं कहाँ मिलती 
रंग कैसे कहते रंगत अपनी 
इंध्रधनुष मौन ही खो जाता 
फिर क्या होता पुष्प सौंदर्य
फिर आस्था के प्रश्न गिरते 
और प्रयास भी बेअसर होता 
ये लहरें संवाद विहीन होतीं 
ये हवाएँ तुमको कैसे सुनती
पक्षी जीवन गीत गाते उड़ते 
क्यूँ मनमंदिर में लौ जलती
उसी आस्था  स्पर्श  से हो के   
वजूद स्वर्ण बना गर तुम्हरा 
पारस आस्थाभाव भी हमारा 
तुम ही नहीं , ये जिसे छूता है 
अस्तित्व उसका कांतिस्वर्ण 
पुंज पल क्षण प्रदीप्य होता है 
सोचती हूँ ! तुम न होते तो !! सोचती हूँ ! तुम न होते तो
(  दो शब्द  :- ये  आस्था ....... ये  विश्वास .....संसार  में  इस  से  मूल्यवान  कुछ  नहीं  और  ये जिस  पर  भी  ठहर  जाता है  वो  ही  मूल्यवान  हो  जाता  है , है  न ! संसार  की  जादुई  पारसमणि  ; इसीलिए  ज्ञानी  कहते है भावना में भगवान है और भक्ति  का भवन तो भावना पे  ही खड़ा  है  तो भाव में  भक्ति में  प्रेम में  भगवान का वास होना  ही है । और  जादू देखिये  ; ये की परतों से बने संसार की जिस भी पर्त को ये पारस जिस भी भाव  को स्पर्श  करता  है , वो उसी रूप में अति मूल्यवान पवित्र कान्तियुक्त सुवर्ण  हो जाता है। आह !! अहोभाव !!! आस्था कभी दोषयुक्त नहीं हो सकती। अपने किसी भी तल पे ये मैली नहीं ।  )

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