Saturday 6 June 2020

कवि-मंथन


वाणी और लेखनी से अंगार झरें तो  
हे आर्त कवि  ये "मंथन" तुम्हारा है 

लाल स्याही से भाव तुम्हारे  
कर्मठनद धैर्य; नुक पे क्यूँ?
चोट करे गरु महासागर पे
लेखनी वन राख करे क्यूँ?

उदगम से चली कर्मसुंदरी  
ठानी मंजिल तक जाने की
मंजिल उसकी क्या सिवाय 
महासागर में मिल जाने की 


संघर्ष युक्त जीवन-स्पंदन 
सौंदर्य; धरा के आँचल में 
अन्तस् में दहक लावे की 
पर जीवन छल्के अंगों में 

आओ न! रचना करें हम
आह्वाहन कवि तुम्हारा है

नाव-शब्द खेलें लहरों से
भाव, समंदर से गहरे हों

कुछ ऐसे सुंदर शब्द हों
जो कुछ मेरे कुछ तेरे हों

स्वर, जो भाषा ऊपर हों
जो पीड़ा त्रास भरे ना हों

ना ही ह्रदय का रुदन हों
ना ही वे नैनों से बहते हों

विभीषिका समझते हों वे 
नर्म सुगन्धित फूलों से हों

उन्पे तेरा मन भ्रमर डोले
चुन शब्दकली माला बुने

मोहक तितली उपवन के
पुष्पित संसार में नर्त करे

मधुमख्ही से बैठे तौल के
उड़ें पराग कण मुँह में ले

चिरयिया से चूंचूं करते हों
कवि !तेरे शब्द चुनिंदा हों

रंगीं बयार से इठलाते हों
जो; मन का भय हरते हों

दारुण दुःख पे मल्हम हों
समय के विष हर लेते हों

नीलीज्वाला से शीत-तपित
कवि! बस वे सुंदर शब्द दो 

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