Sunday, 29 December 2019

चिरंतन यात्रा का राही



वो इस पार की बात और उस पार की यात्रा करता है 

मन से तटस्थ है मेरुदंड साधा हुआ है जिसने मध्य में

माया से जुदा नहीं पर माया से जुदा हुआ सा लगता है

चिरंतन यात्रा का राही, वो इस कालखण्ड का साथी है

कालखंड जो खंड खंड के खंड में हम खंड खंड साथ है 

स्वयं काल है कारण, ऐसे कार्य की कड़ी के हम साक्षी है 

Sunday, 22 December 2019

वो भाग्य से अर्धांगिन थी

बहुत खामोश पर हमेशा मुस्कराने वाला 
ऐसा जिसमे कोई कमी ढूंढे सा न निकले
ऐसा वो सजीला बांका  उच्च पदासीन था 
उस एक ऐसे की वो भाग्य से अर्धांगिन थी 
ये हर बात बाँटना चाहती बहुत बोलती थी 
के यूँ उसका शर्मीलापन कम हो ख़त्म हो
दोस्तों के संग शराब लेता तो गाल गुलाबी 
और एक जबरदस्त मौन को ओढ़ लेता था
दोस्त समझती थी उसे बहुत प्रेम करती थी 
तब इसने संकल्प लिया उसका मौन तोड़ेगी 
जो भी हो दिल में दिल की तह तक पहुंचेगी
ऐसा हुआ ! मौन टूटा इक दिन वो बोल पड़ा 
जो जो वो अपनी धुन में जिस तरीके से बोला
उसे सुन अवाक हो उसके बोल सारे ख़तम
उसका दोस्त गायब हो चुका था, ये कौन था?
ज्यूँ कोई सुन्दर वस्त्र में  कुरूप व्यक्तित्व था
जिसकी सोच की अपनी उड़ान थी,  दृष्टि थी-
उसके देखने का अपना अंदाज था, स्पर्धा थी 
और वो चुप , आखें  भरी, होंठ सिले थे उसके 
वो कभी बोल नहीं पायी उससे दिल की बात

Saturday, 14 December 2019

Wednesday, 30 October 2019

ये फलसफे है



ये फलसफे है इन्हे सुन सको तो सुनो


क्यूंकि इनमे ही छिपे हुए अफ़साने है


एक एक अफ़साने में छिपी दास्ताँ है


हर दास्ताँ में छिपा है एक लम्हा देखो


और हर लम्हे के भीतर रहता वो सच


ये फलसफे है इन्हे सुन सको तो सुनो

Tuesday, 22 October 2019

सार्थ (meaningful)

ह्रदय भाव समर्पित उम्र के नाम 

जवानी में मिले थे लो वृद्ध होने आये
पिछली लम्बी पूरी जिंदगी लड़ते रहे
तुम्हारे संस्कारजन्य अहंकार के संग
मेरे थे संस्कारजनित अहंकार के पुंज

कैसे हार मानते थे युवा ऊर्जा से युक्त
किन्तु आज समझ आया तुम्हारी तेजी
तुम्हारी शक्ति.. जिससे उलझ रही थी
दरअसल वो मेरी ही थी, तुम सूरज थे

और मैं धरती; तुम्हारी ऊर्जा से घूमती
प्रकति को अपने गर्भ से जन्म देती मैं
मौसमों को समटे हुए अपने आँचल में
शक्ति मदांध सूर्य का ओज भुला बैठी

किन्तु ..आज हम दोनों वृद्ध हो चले हैं
'मैं अशक्त हूँ', ये बात स्वीकार है मुझे
तुम्हारा अशक्त होना अच्छा नहीं लगा
न जाने क्यूँ! तुम्हे पूरी उम्र लड़ते देखा

स्वयं से तो कभी मुझसे कभी दुनिया से
तुम तो सूर्यकेन्द्र थे तुमसे सुबह शाम थे
तुमको अशक्तनिढाल हारा हुआ देखना
जाने क्यों; मुझे अशक्त निढाल करता है

Friday, 6 September 2019

बड़े चर्चे थे साहब के

आवाज में कड़की जवां और हृष्टपुष्ट थे
बड़े चर्चे थे उनके जब साहब जिन्दा थे

उम्र की लाठी चली उनपे तोहमत लगी 
उन्हें ऐसा नहीं बल्कि ऐसा होना चाहिए

ये देखो इस बात पे ऐसा क्यूँ कह दिया 
वो देख  बेमतलब इधर उधर डोलते है 

आज उन्होंने बजार में गजब कर दिया 
आज उन्होंने हमारी बात ही नहीं सुनी

बुढ़ापे में ऐसा किया सठिया गए है क्या
जो बना खा लिए  मन का खा नहीं सके

आज वो नहीं है, किसी को भी याद नहीं
सबकी है जिंदगी उन्हें भी कहने वाले हैं

वे सब जिन्दा , कहे की परवाह में परेशां 
जो बेचारे परवाह में गए उनको भूल गए 

ये कैसा चक्कर है, चक्कर में चक्कर है 
धनुसा घनचक्कर हो बोलता अपने लिए

© Heart's_Lines / Lata Tewari 

Friday, 30 August 2019

अल्लाह बड़ा रहमदिल है


काले लिबास में लोग थे बेवजह बकरा बना दिया 
लो; घुटने हमारे बंधे है और आँखों पे पट्टी चढ़ी है

यूँ तो तेरे मुल्क में आये हम सभी बकरे हैं बंधे हुए 
जन्नत की बकरीद में लगता है इसबार मेरी बारी है

कहते हैं वे तुझे याद कर अल्लाह रहम-रहम कहूं 
बच सकता है तो बच ले अल्लाह बड़ा रहमदिल है

तेरे तरीके की शान! बकरीद का जश्न यहाँ खूब है 
पर ये बकरे कुछ ज्यादा ही लाचार और बेबोल है

पल में ,नजरो में नजारा था जब इक जुस्तजू वास्ते
बकरीद दिन मुहैया किया क़ुर्बानी के जश्न के लिए

जिसे न देखा न जाना उस वख्ती आफत से बचने 
चाकू पे धार तेज की, ताकि हलाली ठीक हो सके

अंजानी आफत वास्ते क़त्ल कर दिया था ये कहते 
बच सकता है तो बचले अल्लाह बड़ा रहमदिल है
© Heart's Lines / Lata

My apologies if hurts festive feel, out of celebration here is something more to think.

Thursday, 29 August 2019

सोच में हूँ


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सच में अब मैं सोच में हूँ
अजब कश्मकश जद्दोजहज में हूँ
आदमी हुनर के लिए जीता है
या हुनर अपने आप सर चढ़ बोलता है

सच में अब मैं सोच में हूँ
दिल से निकली बात दिल तक पहुंची
या दिल तक बात पहुँचाने
मैं अथक कोशिशों को अंजाम देता हूँ

सच में अब मैं सोच में हूँ
सच था कभी लिखता था दिल से दिल की
अब तो दिलों तक जाने को 
घूमेरस्ते तंगगली उलझेनुक्कड़ तै करता हूँ

© HEART'S LINES / LATA 

Picture curtsy Chaman Nigam ji  

कई मंजिल का पुराना मकान है

कई मंजिल का पुराना मकान है

ऊपरी वाली मंजिल वर्षों से बंद है

उस मंजिल तक पहुँचने के लिए

सीढियाँ फिलहाल गर्द से भरी हैं


ये मेरा इक अकेले का बनाया नहीं

पीढ़ियों का संजोया हुआ मकान है

पीढ़ी से गुजरता हुआ साफ़ सुथरा

धीरे धीरे लोग कम मंजिले बंद हुई


याद है रौशनी से धुला  मेरा मकान

ऊपरी माले में थी बुजुर्गों की बैठक

खिड़की से दिखती बारिश की झड़ी 

दूर आसमाँ पे खिला अपना इंद्रधनुष


छज्जे में खिलती हुई भोर की सुबह

दोस्त तोता पिंजरे में बोले राम-राम

याद है छत की मुंडेर पे आ के बैठा

मोर रात भर चमकते सितारे चुगता


पर अब कई बरसों से माला  बंद है

अब कोई भूले वहां आता जाता नहीं

नीचे के घर में भी कई कमरे बने है

बच्चे कभी कभार मेहमान  बनते है


जिन्हे पता नहीं घर में ऊपरी माला है

जिसमे कभी खुशियां तोता था मोर था

मेरी मंजिल पे संगीत था बेहद सुरदार

नए होने की कोशिश में थोड़ा बेसुरा है


मेरे बच्चे भी अजब पहचान बदलते हैं

जैसे पहले थे इस बार वो नहीं लगते हैं

खुदा जाने वो ही आते  है या कोई और

न मालूम इत्ती जल्दी रंग में कैसे ढलते है


शराब नहीं पीता अपना पयला भरता हूँ

नशे में  जीने की ताकत बढ़ती जाती है

सिगरेट नहीं  पीता पर माचिस मांगता हूँ

जायेंगे बहुत कुछ जलाके ख़ाक करना है


मेरे इस मकान में बस दो जीने उतर के

अँधेरा तहखाना है किसी को नहीं मालूम

ख़ामोशी का दिया यहाँ चुपचाप जलता है

जहां सुकून सोया हुआ मेरा बेफिक्र होके


बस इत्ती  गुंजाइश मेरे वास्तेउसने छोड़ी है

जब मैं तक के  वो दो सीढियाँ उतर पहुंचू

पहलु में लेट जाऊं गले लग केआहिस्ता से

उसके बाजू में सर रख के चुपचाप सो जाऊँ



© Heart's Lines / Lata 


* प्रेरणा स्रोत :  गुलजार साहब 

Monday, 19 August 2019

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा



हुत  खोज प्रयास के बाद एक नाम  कव्वाली गाने वाले का सामने  आ पाया  , जिसका संगीत दिया अनु मालिक ने  फिल्म - चढ़ता सूरज धीरे धीरे , जिसमे गायक  अजीज मियां  या अजीज नाज़ां / मुज्तबा अजीजज नाज़ां है  जो  मशहूर कव्वाली गायकी में  रहे है  (थे ), अन्य कव्वालियां भी अजीज के नाम है जैसे  * झूम बराबर झूम शराबी , और  * मैं नशे में हूँ , 7th May 1938 – 8 October 1992 इनका जीवन काल है ,  इससे अधिक  लिखने वाले शायर का नाम अभी तक नहीं पता चला ,  अद्वैत को इशारा करती इस कव्वाली को   हिन्दू  भक्ति  धारा  में भजन में भी शामिल किया गया  और ग़ज़ल में भी  कई फनकारों  ने इसे अपनी आवाज़ भी दी  किन्तु इसकी धुन से  छेड़छाड़  किसी ने भी नहीं की। 


ज जवानी पर इतरानेवाले कल पछतायेगा 
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 
ढल जायेगा
ढल जायेगा
ढल जायेगा
ढल जायेगा
Kumar Vishvas : बनारस में गंगा तट पर बैठ कर माँ वाणी की साधना करते और कबीर परंपरा को जीते भारत रत्न बिस्मिल्लाह ख़ान साहब को उनकी पुण्यतिथि पर प्रणाम। आपके सुर युगों तक हर मन में स्पंदित होते रहेंगे और आप सदैव संगीत के शिखर-सम्राट के रूप में स्थापित रहेंगे। नमन। 🙏[words and picture taken from Kumar Vishvas who given thanks for contribution Sand Art - Shri Sudarshan Patnaik]
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तू यहाँ मुसाफ़िर है ये सराये फ़ानी है
चार रोज की मेहमां तेरी ज़िन्दगानी है
ज़र ज़मीं ज़र ज़ेवर कुछ ना साथ जायेगा
खाली हाथ आया है खाली हाथ जायेगा
जानकर भी अन्जाना बन रहा है दीवाने
अपनी उम्र ए फ़ानी पर तन रहा है दीवाने
किस कदर तू खोया है इस जहान के मेले मे
तु खुदा को भूला है फंसके इस झमेले मे
आज तक ये देखा है पानेवाले खोता है
ज़िन्दगी को जो समझा ज़िन्दगी पे रोता है
मिटनेवाली दुनिया का ऐतबार करता है
क्या समझ के तू आखिर इसे प्यार करता है
इसे प्यार करता है
इसे प्यार करता है..
अपनी अपनी फ़िक्रों में
जो भी है वो उलझा है 
ज़िन्दगी हक़ीकत में
क्या है कौन समझा है 
आज समझले ..
आज समझले..कल ये मौका हाथ न तेरे आयेगा
ओ गफ़लत की नींद में सोनेवाले धोखा खायेगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 

मौत ने ज़माने को ये समा दिखा डाला
कैसे कैसे रुस्तम को खाक में मिला डाला
याद रख सिकन्दर के हौसले तो आली थे
जब गया था दुनिया से दोनो हाथ खाली थे
अब ना वो हलाकू है और ना उसके साथी हैं
जंग जो न कोरस है और न उसके हाथी हैं
कल जो तनके चलते थे अपनी शान-ओ-शौकत पर
शमा तक नही जलती आज उनकी क़ुरबत पर
अदना हो या आला हो
सबको लौट जाना है 
मुफ़्हिलिसों का अन्धर का
कब्र ही ठिकाना है
जैसी करनी ...
जैसी करनी वैसी भरनी आज किया कल पायेगा
सरको  उठाकर चलनेवाले एक दिन ठोकर खायेगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 

मौत सबको आनी है कौन इससे छूटा है
तू फ़ना नही होगा ये खयाल झूठा है
साँस टूटते ही सब रिश्ते टूट जायेंगे
बाप माँ बहन बीवी बच्चे छूट जायेंगे
तेरे जितने हैं भाई वक़तका चलन देंगे
छीनकर तेरी दौलत दोही गज़ कफ़न देंगे
जिनको अपना कहता है सब ये तेरे साथी हैं
कब्र है तेरी मंज़िल और ये बराती हैं
ला के कब्र में तुझको मुरदा बक डालेंगे
अपने हाथोंसे तेरे मुँह पे खाक डालेंगे
तेरी सारी उल्फ़त को खाक में मिला देंगे
तेरे चाहनेवाले कल तुझे भुला देंगे
इस लिये ये कहता हूँ खूब सोचले दिल में
क्यूँ फंसाये बैठा है जान अपनी मुश्किल में
कर गुनाहों पे तौबा
आके बस सम्भल जायें 
दम का क्या भरोसा है
जाने कब निकल जाये 
मुट्ठी बाँधके आनेवाले ...
मुट्ठी बाँधके आनेवाले हाथ पसारे जायेगा
धन दौलत जागीर से तूने क्या पाया क्या पायेगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 

Friday, 16 August 2019

बंटवारा: १९४७ की खूनी रात

बंटवारा और उस वख्त के हालत इसलिए इतिहास में महत्वपूर्ण नहीं के इसके पहले लोग  अलग अलग कारणों  से काटे गए या सामूहिक जलाये गए , इस पार्टीशन के पहले भी और इसके बाद भी क्रूर मानवीयता के दंश इतिहास में मिलते है , लोगों को  ही इसे न समझने की बुरी बीमारी है , और उन्ही हालातो में दोबारा लौट जाने या तो विजय हासिल करने या शहीद होजाने की भी साहसिक ख्वाहिश इंसानो की ही है ,  इसीलिए कुछ दिन दहसत में खामोश होकर  फिर किसी नये  उपद्रव को अंजाम देते है या अंजाम को भोगते हैं  , ऐसा न होता तो हिटलर के नरसहार के बाद  लोग सुधर गए होते  या द्व्तीय विश्व युद्ध के बाद आतंकवाद न आया होता , या धरम के नाम पे जगह जगह मानवबम  या केमिकल बम  न फूटते , या कश्मीर सरीखी धरती धर्म और आतंक के लिए खून से न सनती।  पर हुआ  , और आजाद भारत में  बटवारे की त्रासदी के बाद ये भी हुआ , राजनितिक संघर्ष का दूसरा नाम युद्ध है।  जिससे कभी भी इंकार नहीं , और पागल लोगो के विचार उनकी  शहीदी शृद्धा  कुर्बान अंधभक्ति  किधर को जाये,  पता नहीं।  इंसान समझदारी  और मूर्खता  का अद्भुत संगम है ,  ऐसा इंसान जिसने जंगल के कानून से अपने को सुरक्षित करने के बाद सभ्य और निरंतर विकसित होते  मानव-समाज  में अपना योगदान दिया तो नेस्तानबूत होती मानवीयता के लिए अपने श्रम का  कम योगदान नहीं किया।  

सा ही  मानवीयता की मर्यादा  को ध्वस्त करता हुआ काल  जिसमे उस वख्त एक पीढ़ी लगभग समाप्त हो गयी  उस पीढ़ी में  कुछ  वृद्ध थे  जो उसी के आस पास चले गए कुछ युवा थे  जिनका सशक्त योगदान भी था  वे  सत्तर के तीस -चालीस  साल के लम्बे काल में दुनिया से कूच  कर गए , तकरीबन ! उस वख्त  सन सैंतालीस  या सन अड़तालीस में  जन्मे भी  या तो नहीं हैं  या वृद्ध हो गए हैं। इसकारण चश्मदीद तो  मिलना लगभग असंभव  है,  फिर भी समय समय पे  कवी अपने शब्दों से उस काल को जीवित करने का प्रयास करते है  , ताकि कुछ मूरख सुधर सकें और  उजड़ती मानवीयता को थोड़ा सहारा मिले -


उन भावों को कैसे शब्दों का सजीव जमा दोगे कवि..!

दहशत में खुनी हुजूम से बचते वो भागे थे इक तरफ

बात उन दिनों की है जब दुनियां धीरे चलती थी पैरों पे

न सूचना साधन न कोई वाहन रौशनी भी उगे सूर्य तक

ऐसी रात्रि में खाना खा  एकदूसरे को शुभ कह सो गये

के अचानक हल्ले से हड़बड़ाई आँखों ने नजारा देखा

खूनीनदी बिखरामांस चीखचिल्लाह बचाओ मारो स्वर

और कुछ पल को एक खामोश खुनी सन्नाटा, के उठीं-

अपने बच्चों को गठरी में छिपा भागते पैर की पदचापें

उन पदचापों का पीछा करती, भागतीं अनेक पदचापें

जैसे तैसे अँधेरी गलियों से गुजरते अपनों से बिछड़ते

भूत खून से भरा वर्तमान  में होश गुम  भविष्य अँधेरा

स्टेशन पे अम्बार-ठूँसठूंस आपाधापी छूटा तो वो गया

अपने जीवन की साँसे छीनते वख्त से जा बैठे डब्बे में

के अचानक फिर एक हमला और बैठे कई लोग गिरे

खून से कपडे भीगे लाशों के नीचे कुछ साँसे बची हुई

औ गाडी चल पड़ी अंजानी दिशा को नयी सरजमीं पे

क्या जान बच गयी थी ! अंदेशा था ! टटोला आस पास

कोई नहीं था जीवित पर कुछ साँसों की आवाजें आयीं

जो जीवित बचे थे उनमे गजब का रिश्ता बन गया और

गाडी चलती रही ठंडी हवा लगती रही खून सुख गया

भूख से अंतड़िया कुलबुलाने लगी, लाचारी के शिकार

नए वतन में स्वागत नहीं कोई पेट का जरिया नहीं था

एक गठरी चंद  बचे लोग आँखे धुंआ धुंआ और केम्प

इतनी भी  ताकत नहीं के याद करे बस दो दिन पहले

परिवार के साथ थे भोजन में स्वाद था हंसी थी खेल था

आँखे लो भर आयी इन्हे यही रोक इनसे  काम हैं लेने

वो घर वो वतन वो जमीं वो घर न जाने लोग कहाँ गए

ये वख्त ये  संघर्ष ये दौर ये झुकी कमर ये बीमार देह

ये लड़ने का हौसला यहाँ भी जिंदगी तलवार की धार

कलके जिद्दी बच्चे को हाथजोड़ पैसे कामना आ गया

आज फिर तलवारो की धमकी देते है दहसत देते है

आज फिर वो हमें उन रातों की यादे  याद दिलाते हैं

आज फिर उन भूले हुए जख्मों पे वो नश्तर घुसाते है

आज फिर वो बंटवारें के मंजर की आवाज उठाते है

आज फिर कुछ गद्दार जा मिल उनके ही स्वर गाते है

आज फिर १९४७ की आधी रात को सीटी देती गाडी

आज भी गहरे में उसी स्टेशन पे वो ही गाडी खडी है

भागते बचाओ बचाओ, पीछा करते  मारो मारो स्वर

कैसे हम भुला पाएंगे ! पीढ़ियों कैसे तुम भूल पाओगे

क्यूँकर हम वो दोहराएं, क्यूँकर तुम उन्हें दोहराओगे

उन भावों को ऐसे शब्दों का सजीव जामा दो कवि..!

Friday, 26 July 2019

फ़क़ीर की डायरी


भाग्य से कर्म से मैं फ़क़ीर हूँ
मेरा नया पता -
इधर ... डिस्ट्रिक्ट
हिम्मत ... नगर
और मैं ... प्रवासी
जब मैं इस धरती के टुकड़े पे उतरा
वो था हिम्मत का नगर
उसे अपने झोले में डाल मैं थोड़ा ही आगे चला
के मिला इधर जिले का इशारा
उस इशारे को अपने झोले में डाल आगे चला
तो मिली एक झोपडी जिसमे दिया जल रहा था
उस वीरान सी झोपडी में
मैंने खाली सी खूंटी पे अपना झोला टांग दिया
और जुट गया उसकी सफाई में
उस झोपडी में चौका बर्तन जुटा सश्रम
भंडारा कर मैंने भोजन पकाया
एकमुखी स्थान में निद्राकक्ष बनाया ,
देवस्थान में पूजन-ध्यान-योग किया
आत्मा को उससे मिलाने की अथक चेष्टा
सोना रोना छटपटाना सब कुछ शामिल था
पर सबसे बड़ी मुश्किल आयी
खूंटी पे अटके झोले को दोबारा
अपने कंधे पे डाल खुली झोपडी को
वैसे ही छोड़ के चल पडना, जैसे पायी थी।
जगह जगह खाने बैठने के निशान बिखरे पड़े थे।
और मैं फ़क़ीर सफाई कर कर के थक चूका था
अचम्भा देख ..., अचरज से भरा ..., मैं
हतप्रभ ! स्थानदेव को प्रणाम कर
अगली यात्रा पे निकल पड़ा
25-07-2019 Lata to संत Bhagwatidas Nandlal bhayi ji