Friday, 16 August 2019

बंटवारा: १९४७ की खूनी रात

बंटवारा और उस वख्त के हालत इसलिए इतिहास में महत्वपूर्ण नहीं के इसके पहले लोग  अलग अलग कारणों  से काटे गए या सामूहिक जलाये गए , इस पार्टीशन के पहले भी और इसके बाद भी क्रूर मानवीयता के दंश इतिहास में मिलते है , लोगों को  ही इसे न समझने की बुरी बीमारी है , और उन्ही हालातो में दोबारा लौट जाने या तो विजय हासिल करने या शहीद होजाने की भी साहसिक ख्वाहिश इंसानो की ही है ,  इसीलिए कुछ दिन दहसत में खामोश होकर  फिर किसी नये  उपद्रव को अंजाम देते है या अंजाम को भोगते हैं  , ऐसा न होता तो हिटलर के नरसहार के बाद  लोग सुधर गए होते  या द्व्तीय विश्व युद्ध के बाद आतंकवाद न आया होता , या धरम के नाम पे जगह जगह मानवबम  या केमिकल बम  न फूटते , या कश्मीर सरीखी धरती धर्म और आतंक के लिए खून से न सनती।  पर हुआ  , और आजाद भारत में  बटवारे की त्रासदी के बाद ये भी हुआ , राजनितिक संघर्ष का दूसरा नाम युद्ध है।  जिससे कभी भी इंकार नहीं , और पागल लोगो के विचार उनकी  शहीदी शृद्धा  कुर्बान अंधभक्ति  किधर को जाये,  पता नहीं।  इंसान समझदारी  और मूर्खता  का अद्भुत संगम है ,  ऐसा इंसान जिसने जंगल के कानून से अपने को सुरक्षित करने के बाद सभ्य और निरंतर विकसित होते  मानव-समाज  में अपना योगदान दिया तो नेस्तानबूत होती मानवीयता के लिए अपने श्रम का  कम योगदान नहीं किया।  

सा ही  मानवीयता की मर्यादा  को ध्वस्त करता हुआ काल  जिसमे उस वख्त एक पीढ़ी लगभग समाप्त हो गयी  उस पीढ़ी में  कुछ  वृद्ध थे  जो उसी के आस पास चले गए कुछ युवा थे  जिनका सशक्त योगदान भी था  वे  सत्तर के तीस -चालीस  साल के लम्बे काल में दुनिया से कूच  कर गए , तकरीबन ! उस वख्त  सन सैंतालीस  या सन अड़तालीस में  जन्मे भी  या तो नहीं हैं  या वृद्ध हो गए हैं। इसकारण चश्मदीद तो  मिलना लगभग असंभव  है,  फिर भी समय समय पे  कवी अपने शब्दों से उस काल को जीवित करने का प्रयास करते है  , ताकि कुछ मूरख सुधर सकें और  उजड़ती मानवीयता को थोड़ा सहारा मिले -


उन भावों को कैसे शब्दों का सजीव जमा दोगे कवि..!

दहशत में खुनी हुजूम से बचते वो भागे थे इक तरफ

बात उन दिनों की है जब दुनियां धीरे चलती थी पैरों पे

न सूचना साधन न कोई वाहन रौशनी भी उगे सूर्य तक

ऐसी रात्रि में खाना खा  एकदूसरे को शुभ कह सो गये

के अचानक हल्ले से हड़बड़ाई आँखों ने नजारा देखा

खूनीनदी बिखरामांस चीखचिल्लाह बचाओ मारो स्वर

और कुछ पल को एक खामोश खुनी सन्नाटा, के उठीं-

अपने बच्चों को गठरी में छिपा भागते पैर की पदचापें

उन पदचापों का पीछा करती, भागतीं अनेक पदचापें

जैसे तैसे अँधेरी गलियों से गुजरते अपनों से बिछड़ते

भूत खून से भरा वर्तमान  में होश गुम  भविष्य अँधेरा

स्टेशन पे अम्बार-ठूँसठूंस आपाधापी छूटा तो वो गया

अपने जीवन की साँसे छीनते वख्त से जा बैठे डब्बे में

के अचानक फिर एक हमला और बैठे कई लोग गिरे

खून से कपडे भीगे लाशों के नीचे कुछ साँसे बची हुई

औ गाडी चल पड़ी अंजानी दिशा को नयी सरजमीं पे

क्या जान बच गयी थी ! अंदेशा था ! टटोला आस पास

कोई नहीं था जीवित पर कुछ साँसों की आवाजें आयीं

जो जीवित बचे थे उनमे गजब का रिश्ता बन गया और

गाडी चलती रही ठंडी हवा लगती रही खून सुख गया

भूख से अंतड़िया कुलबुलाने लगी, लाचारी के शिकार

नए वतन में स्वागत नहीं कोई पेट का जरिया नहीं था

एक गठरी चंद  बचे लोग आँखे धुंआ धुंआ और केम्प

इतनी भी  ताकत नहीं के याद करे बस दो दिन पहले

परिवार के साथ थे भोजन में स्वाद था हंसी थी खेल था

आँखे लो भर आयी इन्हे यही रोक इनसे  काम हैं लेने

वो घर वो वतन वो जमीं वो घर न जाने लोग कहाँ गए

ये वख्त ये  संघर्ष ये दौर ये झुकी कमर ये बीमार देह

ये लड़ने का हौसला यहाँ भी जिंदगी तलवार की धार

कलके जिद्दी बच्चे को हाथजोड़ पैसे कामना आ गया

आज फिर तलवारो की धमकी देते है दहसत देते है

आज फिर वो हमें उन रातों की यादे  याद दिलाते हैं

आज फिर उन भूले हुए जख्मों पे वो नश्तर घुसाते है

आज फिर वो बंटवारें के मंजर की आवाज उठाते है

आज फिर कुछ गद्दार जा मिल उनके ही स्वर गाते है

आज फिर १९४७ की आधी रात को सीटी देती गाडी

आज भी गहरे में उसी स्टेशन पे वो ही गाडी खडी है

भागते बचाओ बचाओ, पीछा करते  मारो मारो स्वर

कैसे हम भुला पाएंगे ! पीढ़ियों कैसे तुम भूल पाओगे

क्यूँकर हम वो दोहराएं, क्यूँकर तुम उन्हें दोहराओगे

उन भावों को ऐसे शब्दों का सजीव जामा दो कवि..!

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