आह ! हाशिया सा लग जाता है ख्वाहिशों के जमा पुलिंदे लिए इन्सां अचानक ही उठ जाता है न कह पाना, न कुछ सुन पाना रूह वक्त मुक्कमल हो जाता है . उम्र के साज पे झनझनाते तार कहते हैं गुनगुना जीभर के राग साजआवाज का ये संगम कहाँ ! आज की सोंधी महक, अब में है बीतते कल परसों बरसों में कहाँ.
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