किताबें कहाँ सच झूठ बोलती हैं
ज्ञान की माननिंदा में उलझती हैं
इन्हे खंगाल निकालते झुठ और
किताबों के तो सच भी तुम्हारे हैं
बंद ताले से ये स्वर्णकुंजी देखे हैं
सम्भव बंद द्वार तुमसे खुल जाएँ
इसी से सदी से मौन चुप किताबें
पन्नो के बंद राज तुमपे छोड़ती है
जीवन का बोध कराती किताबें हैं
योगकर्म सन्देस देती ये किताबें हैं
प्यारी बहुत सुनो ! निष्प्राण नहीं हैं
ज्ञान भगीरथ से नहायी किताबें हैं
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